Thursday, April 27, 2017
एक आधी खुली खिड़की: महात्मा गांधी के जन्मस्थान पोरबंदर में
एक आधी खुली खिड़की: महात्मा गांधी के जन्मस्थान पोरबंदर में । उनके घर के पहली मंजिल पर जहां जाने के लिये आपको काठ की सीढियां बेहद सावधानी से चढ़कर जाना होगा। आधी खुली खिड़की जिससे महात्मा के घर कोई भी फांदकर आने की जहमत क्योंकर करे? कोई भी आ जाये और इस घर को बहुत परिचित ही बताने लगे। आखिर हर किसी का हक भी तो ठहरा।पर, फिर भी तारीख की कवायद से पड़े यह खिड़की ताकीद करती रहेगी कि वह आधी ही खुली थी।
देर से: मेरी एक प्यारी सी भतीजी है लखनऊ में रहती है और पता नहीं कब कैसे पर बापू से बहुत लगाव है उसे। पोरबंदर आने का उसका बहुत मन है और संयोग बन नहीं पा रहा। तो आज जब हमें पता चला कि सोमनाथ से द्वारका के रास्ते पोरबंदर से गुजरते हैं तब से कीर्ति मंदिर जो गांधी जी का जन्मस्थान हैं वहां तक उस छोटी सी भतीजी का ख्याल उतना ही आह्लादित करता रहा जितना मन गांधी जी को याद कर रहा था। फेसबूक लाइब भी उसी को ध्यान में रखते हुए साझा कर रहा था। बहुत कुछ है कहने सुनने को पर एक गली जिससे होकर हम वहां तक पहुंचे, मेरी भतीजी श्रेयसी और इस अधखुली खिड़की के बंद/खुले समय और संभावनाओं के नाम...
देर से: मेरी एक प्यारी सी भतीजी है लखनऊ में रहती है और पता नहीं कब कैसे पर बापू से बहुत लगाव है उसे। पोरबंदर आने का उसका बहुत मन है और संयोग बन नहीं पा रहा। तो आज जब हमें पता चला कि सोमनाथ से द्वारका के रास्ते पोरबंदर से गुजरते हैं तब से कीर्ति मंदिर जो गांधी जी का जन्मस्थान हैं वहां तक उस छोटी सी भतीजी का ख्याल उतना ही आह्लादित करता रहा जितना मन गांधी जी को याद कर रहा था। फेसबूक लाइब भी उसी को ध्यान में रखते हुए साझा कर रहा था। बहुत कुछ है कहने सुनने को पर एक गली जिससे होकर हम वहां तक पहुंचे, मेरी भतीजी श्रेयसी और इस अधखुली खिड़की के बंद/खुले समय और संभावनाओं के नाम...
पौने तीन पांतिक गाम
पौने तीन पांतिक गाम
कतेक रास कविता लिख देलक ललटुनमा,
नै भास भेटलै आ नै सोझरौल आखरे,
तैयो लिखैत रहल कविता पर कविता अपने ललटुनमा।
सत्ते कहै छी यैह पिपराही बाली ललमुनिया कनिया'क भातिज, ललटुनमा।
आ वैह दुरुखा कात कोन मे दबकल रहैबला ललटुनमा।
बहुतो बरख सं पढैत रहल ओ कविता आ चौपाई
दोहा आ सोरठा अप्पन गाम पर
लिखलाहा आखर लेकिन अनकर
बताह जेंका ओना मासी धंगैत तकैत रहल महराजी पोखैर परहक भालसरिक छाहैर तर सुसताइत बहलमान आ
पूबरिया महार पर नदी फिरैत ननकिरबीक फोटो
शाह पसीन दिस तकैत ललटुनमाक नोरैल आंखि जाहि सं दहो बहो गंगा जमुना बहैत अप्पनहिके तकैत रहल गामनामक कवित्त मे
लेकिन नै भेटबाक जे
शाह पसीन होय या अप्पन गाम
नहिये ने सुझाइत छैक।
बहुत रास लिख देला सं यदि भेटैक रहितै त
कनटोपा लॉटसाहेब के
भेट गेल रहितैक सौंस गाम।
अधहो आखर नै बेसी नै कम
भेटलै पौने तीन पांतिक गाम।
( कविता दिवस पर)
कतेक रास कविता लिख देलक ललटुनमा,
नै भास भेटलै आ नै सोझरौल आखरे,
तैयो लिखैत रहल कविता पर कविता अपने ललटुनमा।
सत्ते कहै छी यैह पिपराही बाली ललमुनिया कनिया'क भातिज, ललटुनमा।
आ वैह दुरुखा कात कोन मे दबकल रहैबला ललटुनमा।
बहुतो बरख सं पढैत रहल ओ कविता आ चौपाई
दोहा आ सोरठा अप्पन गाम पर
लिखलाहा आखर लेकिन अनकर
बताह जेंका ओना मासी धंगैत तकैत रहल महराजी पोखैर परहक भालसरिक छाहैर तर सुसताइत बहलमान आ
पूबरिया महार पर नदी फिरैत ननकिरबीक फोटो
शाह पसीन दिस तकैत ललटुनमाक नोरैल आंखि जाहि सं दहो बहो गंगा जमुना बहैत अप्पनहिके तकैत रहल गामनामक कवित्त मे
लेकिन नै भेटबाक जे
शाह पसीन होय या अप्पन गाम
नहिये ने सुझाइत छैक।
बहुत रास लिख देला सं यदि भेटैक रहितै त
कनटोपा लॉटसाहेब के
भेट गेल रहितैक सौंस गाम।
अधहो आखर नै बेसी नै कम
भेटलै पौने तीन पांतिक गाम।
( कविता दिवस पर)
विदा पूर्व दिशा, विदा पाटलिपुत्र, विदा मगध की सीढियां और भविष्य की गंध से मादित खंडहर रास्ते जहां वास है मेरी स्मृतिय़ां और मेरे प्रेमिका की हँसी।
वहीं उस सीढी पर उसी कोने में पसरी फुसफुसाहटों और तेज चलती सांसों को अपने झोले में डाल निकल पड़ा था जब, कहां अहसास रहा होगा कि सांसों की भी भला कोई गठरी हो सकती है? किसी ने सिखाया भी तो नहीं कि रास्ते कहीं ले कर नहीं जाते पथिक को। रास्ते आत्म मुग्ध हुआ करते हैं। रास्ते जानते हैं मायावी विद्या। या यों कहें कि रास्ते ही मायावी सुंदरी का एक दुसरा रुप है। वे आपको भ्रम देते हैं कि वे महज माध्यम हैं, एक जरिया भर गंतब्य तक पहुंचाने का जिम्मा भर है उनका। पर, असल में मगध में महज सीढियों का ही वास है। इन्हीं के कोने में बायें से सवा चार आंगुर पर नीचे से गमछे भर उंचाई पर ठीक मध्य में जो सिंदूर बिंदु है वहीं तुम्हारी सांसो को सजोये खड़ी है सीढियां। बुलाती है पास कुछ इस आस से कि वे बेचैन हैं तुम्हें तुम्हारी अमानत सौंप देने को। मानों जो सांस तुमने साथ ले ली थी वह अब भी वहीं उस मायावी ने बड़े जतन से संजोये हुई है। कोने न हुई मुआ कोई एटीएम हो जैसे।
वहीं उस सीढी पर उसी कोने में पसरी फुसफुसाहटों और तेज चलती सांसों को अपने झोले में डाल निकल पड़ा था जब, कहां अहसास रहा होगा कि सांसों की भी भला कोई गठरी हो सकती है? किसी ने सिखाया भी तो नहीं कि रास्ते कहीं ले कर नहीं जाते पथिक को। रास्ते आत्म मुग्ध हुआ करते हैं। रास्ते जानते हैं मायावी विद्या। या यों कहें कि रास्ते ही मायावी सुंदरी का एक दुसरा रुप है। वे आपको भ्रम देते हैं कि वे महज माध्यम हैं, एक जरिया भर गंतब्य तक पहुंचाने का जिम्मा भर है उनका। पर, असल में मगध में महज सीढियों का ही वास है। इन्हीं के कोने में बायें से सवा चार आंगुर पर नीचे से गमछे भर उंचाई पर ठीक मध्य में जो सिंदूर बिंदु है वहीं तुम्हारी सांसो को सजोये खड़ी है सीढियां। बुलाती है पास कुछ इस आस से कि वे बेचैन हैं तुम्हें तुम्हारी अमानत सौंप देने को। मानों जो सांस तुमने साथ ले ली थी वह अब भी वहीं उस मायावी ने बड़े जतन से संजोये हुई है। कोने न हुई मुआ कोई एटीएम हो जैसे।
तस्वीर जो मेरे कैमरे ने ली नहीं कभी, कहीं।
चिपक सी गई है दीवार पर कुछ इस तरह जैसे किसी ने फोबीकोल का पीपा उलट दिया हो। उस ढाई फूटे फ्रेम में एक केतली है, रेझकी जमा चार दुअन्नी के
एक सिलबरिया तसला और दबदब उज्जर देह पर झरकल दाग बाले टुकटुक ताकते लिट्टी के सतरह गोले।
इस तस्बीर में सात सोहल लहसून , एक सिलबरिया थारी और छिपली तीन भी वैसे ही टुकुर टुकुर मुंह बाये
हर आनेजाने बालों को हसरत की नजर से देख रहे हैं।
किनारे से जहां तस्वीर का फ्रेम चनक गया है वहां एक अध वयसु महिला की सी आकृति है, शायद झुक कर सुलगती आग की मैनेजमेंट कर रही हो। इस उम्र में देह जान ही जाता बिन आखर के ही आग की दुनियादारी।
सतरहो चिंहती हैं अपनी अपनी गहकियों को। पर, उनके आने में अभी देर है। पहले आयेगा साइकिल पर दुनिया के बोझ तले। घनी चौड़ी रौबदार मूंछों और दबे कंधे पर अपने से सबा गुना लंबा बंदूक लटकाये कप्तान सिंह।
एक पांव को जमीन पर टिकाने का जतन कर बुढ़िया को साइकल के हैंडल में लटका सबा कनमा कड़ुआ तेल दे बिदा हो जाएगा कप्तान सिंह बगैर मुंह से शब्द एक भी निकाले।
फिर, सामने से गुजर जायेगा, ठेला छितन महतो का जिसपर, बैठी उसकी बेटी देखती रह जाएगी अपनी रोज की इन सतरह सहेलियों को।
आस लिये छित्तन के छौड़ी की आंखे, जिसके नजर से नजर मिलाती लिट्टयां हॉय-बॉय करेंगी। इस सबके बहुत बाद आयेगा राम सनेही और उसका लपैक लफंदर ललटून महतो। फचर फचर करता, फन्ने खां समझता।
राम सनेही के लिये दो और फन्ने खां के लिये एक, कुल तीन बिदा हो जाएंगी एक साथ...रह जाएंगी कहने गिनने को कुल जमा चौदह। पर, जो गिनती में नहीं रह पाता उसका क्या? सतरह से चौदह, चौदह से तेरह...नौ...सात...तीन और सबसे अंत में रह जाएगी एक अकेली छुटकी, अगली सुबह तक के लिये।अपनी सतरहो की सझिया आस लिये। यही हर रोज यदि होना तय हो, तो क्यों नहीं बनाती है बुढ़िया सोलह ही?
यही एक सवाल पुछती रहती हर शाम, इतने बरस से। मानो यह कोई सवाल न हो, जीने का सलीका बन गया हो
लिट्टियों के श्राद्ध से जनमा सलीका।
फिर गहरायेगी रात, फिर छिड़ेगी बात चांद की और चांदनी की,
और, गुलमोहर की चुहल पलकों में संजोये सो जाएगी तस्वीर के तीसरे कोने में सतरहो की याद संजोये।
चिपक सी गई है दीवार पर कुछ इस तरह जैसे किसी ने फोबीकोल का पीपा उलट दिया हो। उस ढाई फूटे फ्रेम में एक केतली है, रेझकी जमा चार दुअन्नी के
एक सिलबरिया तसला और दबदब उज्जर देह पर झरकल दाग बाले टुकटुक ताकते लिट्टी के सतरह गोले।
इस तस्बीर में सात सोहल लहसून , एक सिलबरिया थारी और छिपली तीन भी वैसे ही टुकुर टुकुर मुंह बाये
हर आनेजाने बालों को हसरत की नजर से देख रहे हैं।
किनारे से जहां तस्वीर का फ्रेम चनक गया है वहां एक अध वयसु महिला की सी आकृति है, शायद झुक कर सुलगती आग की मैनेजमेंट कर रही हो। इस उम्र में देह जान ही जाता बिन आखर के ही आग की दुनियादारी।
सतरहो चिंहती हैं अपनी अपनी गहकियों को। पर, उनके आने में अभी देर है। पहले आयेगा साइकिल पर दुनिया के बोझ तले। घनी चौड़ी रौबदार मूंछों और दबे कंधे पर अपने से सबा गुना लंबा बंदूक लटकाये कप्तान सिंह।
एक पांव को जमीन पर टिकाने का जतन कर बुढ़िया को साइकल के हैंडल में लटका सबा कनमा कड़ुआ तेल दे बिदा हो जाएगा कप्तान सिंह बगैर मुंह से शब्द एक भी निकाले।
फिर, सामने से गुजर जायेगा, ठेला छितन महतो का जिसपर, बैठी उसकी बेटी देखती रह जाएगी अपनी रोज की इन सतरह सहेलियों को।
आस लिये छित्तन के छौड़ी की आंखे, जिसके नजर से नजर मिलाती लिट्टयां हॉय-बॉय करेंगी। इस सबके बहुत बाद आयेगा राम सनेही और उसका लपैक लफंदर ललटून महतो। फचर फचर करता, फन्ने खां समझता।
राम सनेही के लिये दो और फन्ने खां के लिये एक, कुल तीन बिदा हो जाएंगी एक साथ...रह जाएंगी कहने गिनने को कुल जमा चौदह। पर, जो गिनती में नहीं रह पाता उसका क्या? सतरह से चौदह, चौदह से तेरह...नौ...सात...तीन और सबसे अंत में रह जाएगी एक अकेली छुटकी, अगली सुबह तक के लिये।अपनी सतरहो की सझिया आस लिये। यही हर रोज यदि होना तय हो, तो क्यों नहीं बनाती है बुढ़िया सोलह ही?
यही एक सवाल पुछती रहती हर शाम, इतने बरस से। मानो यह कोई सवाल न हो, जीने का सलीका बन गया हो
लिट्टियों के श्राद्ध से जनमा सलीका।
फिर गहरायेगी रात, फिर छिड़ेगी बात चांद की और चांदनी की,
और, गुलमोहर की चुहल पलकों में संजोये सो जाएगी तस्वीर के तीसरे कोने में सतरहो की याद संजोये।
शशि और शेखर
1
सबसे पहले तुम, शशि।
इसलिये नहीं कि...
इसलिये भी नहीं कि...
और, इसलिये तो नहीं ही कि...
कम परते जाएंगे तैंतीस ऐसे इसलिये
फिर भी मैंने जिद्द पकड़ ली है। तुमसे ही तो सिखा है मैंने जिद्द करना।
सबसे पहले तुम, शशि।इसलिये कि शेखर शशि नहीं है। शेखर शशि सा भी नहीं हैं। तो शुरुआत इस नकारात्मकता से क्यूंकर आखिर। पर, ऐसा करने बाला भला मैं पहला भी तो नहीं। शेखर शशि सा नहीं, यह मायने नहीं रखता। दो व्यक्तित्व क्यों कर समान हों? लेकिन, शेखर शशि सा होने की कभी इच्छा भी नहीं रखता।शेखर के बनने में शशि को मिट जाना था। इस मिट जाने से शेखर का पुरुष बन पाया। इसमें शशि ने अपने को न्योछावर कर दिया। कतरा कतरा, तिल तिल। शेखर में पुरुष वह सब खोज लेता है जिसकी अभिलाषा उसे होती है। शेखर में शशि ने भी सबकुछ तो पा ही लिया। पर, शेखर तुम नारी नहीं बन पाये। तुम रह गये निरा पुरुष ही।
2
तुम तो शेखर मुसलमान भी नहीं हुए। तुम हरिजन और दलित भी नहीं हो पाये। तुमने रोमांस और दुख दोनो का अर्जन किया। विरासत में न तो तुम्हें दुख मिला, न ही अपमान। जब तुम अपने लंबे और बेढ़ब हाथ को छुपाने का जतन कर रहे थे, उस समय भी तुम्हारी स्मृतियां निजु ही तो रही। कब तुमने भोगा वह जिसपर तुम्हारा कोई बस नहीं हो? कब तुम्हें मिला तिरस्कार और उपेक्षा थाती में? औपनिवेशिक तिरस्कार की स्म़ति, अपराधी करार दे दिये जाने ने जब तुम्हें दुख और दुख से दृष्टि दी-- विजन, तब क्या तुमने सोचा मुसलमान के बारे में, दलित के बारे में और स्त्री होने की क्या अभिलाषा की कभी तुमने?
तुम एक वैश्विक नर होना चाहते थे। बंधनमुक्त, अपने निजुता में परिपूर्ण। स्वतंत्र। पूर्ण। अंग्रेजी कविताओं और संस्कृत से उर्जा लेते हुए। उपमहाद्वीप के दक्षीण में बचपन से लेकर, गंगा पर बहते हुए स्मृतियों के साथ, पश्चिम से पूरब को लांधते हुए। बोगनबेलिया की डांठ को खोसते हुए कभी कुसुम और चंपा की याद तुम्हें नहीं आयी? क्योंकर, शेखर?
इतिहास और साहित्य और प्रांजल भाषा और नक्शे बाले भूगोल के चौखटे से जरा बाहर तो निकलते। जरा सा करते लोक का पसारा, शेखर।
टुटलाहा हवाई चप्पल
हवाई चप्पल त अखनो खियैत हतैक।
फित्ता त अखनो टुटैत हेतैक।
घसटैत पैर सं टुटल फित्ता बला चप्पल हाथ मे नेने मुरली अखनो सुन्नेरि क सामने मुंह नुकबैत अप्पसयांत होईत हैत।
नकटी गली क मोड़ पर टुटलाही चट्टी क फित्ता सेहो ओहिना गंहाईत हेतैक।
सोंहगर, गुंहगर।
फित्ता त अखनो टुटैत हेतैक।
घसटैत पैर सं टुटल फित्ता बला चप्पल हाथ मे नेने मुरली अखनो सुन्नेरि क सामने मुंह नुकबैत अप्पसयांत होईत हैत।
नकटी गली क मोड़ पर टुटलाही चट्टी क फित्ता सेहो ओहिना गंहाईत हेतैक।
सोंहगर, गुंहगर।
अपराजिता
बांये कान के ठीक ऊपर, करीब एक कंगुरिया उंगरी छोड़ कर संतो की नवकनिया ने अपने बालों में एक अधखुली अपराजिता खोंस ली।
...'धत पगली कहीं की! ई फूल कहीं केस में कौई ख़ोपे है?', पिलखुआर बाली अपनी जईधीं पर झिरकते बोली।
' ऊ का है कि राधे के पप्पा को ईहे फूल बाली छापी की साड़ी बहुते पसिन है। त हमनी सोची कि एगो कली केस में खोंस लें। आप कहती हैं तो हम हटा लेते हैं।'मेरे हॉस्टल का कमरा और दुपहरी यादें
उन्हीं दोपहरियों में जब आंखे कमरे की लंबाई नाप कर
इसी दरबाजे के पोरों और कुंडी तक दबे पांव आती।
और फिर, उल्टे पांव तेजी से वापस लौट आती,
अपने में ही सिमट जाते जाने के लिये.
इसी दरबाजे के पोरों और कुंडी तक दबे पांव आती।
और फिर, उल्टे पांव तेजी से वापस लौट आती,
अपने में ही सिमट जाते जाने के लिये.
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