Monday, June 29, 2015

रीगल होटल, दरभंगा

नजारथ (Nazareth) या नसरथ उत्तरी इस्राइल का सबसे बड़ा शहर है जिसे इस्राइल की अरब राजधानी भी माना जाता है. न्यू टेस्टामेंट के अनुसार इसी शहर में जिसस क्राइस्ट का वचपन गुजरा. इसे मैरी का घर और ईशा मसीह का जन्म स्थल भी माना गया है. यह संभव है कि अपनी इन पवित्र कारणों से बाद की सदियों में नजारथ एक पवित्र टाइटल में बदल गया हो. आखिर पुरानी अरबी और कबीलाई परंपरा में स्थान और क्षेत्रियता का नाम से सीधा रिश्ता तो बनता ही था और ईशा मसीह को जिसस आफ नजारथ के नाम से भी जाना जाता है. यह भी संभव है कि यहां से माइग्रेट करने बाले परिबारों ने नजारथ को एक टाइटल के रुप में अपने साथ रख लिया हो.
जॉन नजारथ एक ऐसा ही नाम है. गोवा के जॉन नजारथ के हाथों में जादु था जो भी इनके हाथ का बना एक बार चख लेता इनका दीवाना हो जाता. बिहार के मुख्यमंत्री सच्चिदानंद सिंहा इस सूची में शामिल थे. जॉन इनके यहां प्रधान कुक हो गये. सच्चिदा बाबु के यहां दरभंगा महाराज का आना जाना रहता ही होगा और वहीं डिनर टेबुल पर किसी रात महाराज ने जॉन के खाने की तारीफ भी की हो और सच्चिदा बाबु से जॉन को दरभंगा के लिये मॉंग भी लिया हो. आखिर आलिशान यूरोपीयन गेस्ट हॉउस के लिये उन्हे एक योग्य कुक की तलाश भी तो थी ही. और, जॉन नजारथ महाराज के साथ दरभंगा आ गये, युरोपीयन गेस्ट हाउस.
समय गुजरा, महाराज भी गुजर गए. युरोपीयन गेस्ट हॉउस की हालात बदली और समय क्रम में अन्य धरोहरों के साथ यह गेस्ट हाउस भी युनिवर्सीटी का हिस्सा हो गया. जो हुनरमंद थे उन्होने बदलते समय और शहर का रुख किया. जो स्वाद महज महाराज, मुख्य मंत्री और युरोपीय मेहमानों तक सीमित था अब शहर का हिस्सा हुआ. जॉन ने उत्तर भारत के पहले लाइसेंसी पब की शुरुआत टावर चौक से सटे लालबाग में की. यहां उम्दा ड्रिंक के साथ लजीज खाना और छोटा सा बेकरी भी रक्खा जिसे जॉन और उनकी मेहनती एवं जुझारु पत्नी चलाया करते. नाम रक्खा 'रीगल'. इसके चिमनी से निकलने वाली खुश्बु को फैलते देर न लगी. लोग चोरी छुपे वहां ड्रिंक्स लेने जाते, नव मध्य वर्ग अपने दोस्तों या नव विवाहिता के साथ बहुत हिम्मत दिखाते हुए रीगल के कटलेट्स और मुर्गा या अंडा करी का लुतफ उठाने जाते. प्रगतिशील परिवार जो बाहर डिनर लेने की हद तक रैडिकल नहीं हो पाये थे, उन हमारे जैसे घरों में रीगल नर्म और ताजे पॉंव रोटी तथा मिट्टी की हांडियों में आने वाले अंडा कड़ी और लजीज मुर्गा के लिये जाना जाता. मुझे यदि कुछ याद है तो साइकल पर बैठकर सिढ़ियॉं चढ उस लाल ईंटो के मकान में जाना, पपरी उदरती उसकी दीवार. शाम में ब्रेड की ताजी खेप निकलती. वहां अंडा करी के और मुर्गा को मटके में भरे जाने में लगे समय तक का वो इंतजार जो माहौल के अनोखेपन के कारण खुशगवार हुआ करता. और घर आकर डाइनिंग टेबुल पर मटके के खुलते ही अंडाकरी की वो खुशवु. हो भी क्यों नहीं, आखिर उस मटके में नजारथ से लेकर गोवा तक के रिश्ते जो बसते थे. ऐसे रिश्ते जिसकी गर्माहट दरभंगा अघिक दिन समेटे सहेजे रख न सका.