Wednesday, November 18, 2015

गांव का वाचनालय / Library and the old reading club of my village

हमारे गाम, सरिसब पाही में मेरे घर के सामने सड़क के दूसरी तरफ एक वाचनालय हुआ करता है. नाम महामहोपाधयाय सर डा गंगानाथ झा वाचनालय.बहुत पुरानी संस्था है. आजादी से बहुत पहले की. एक रीडिंग क्लब के रूप में इसकी शुरुआत हुई थी. गाम के बुजुर्ग और कर्मठ लोगों ने आरंभ किया था यह परिपाटी. प्रेरणा कहां से आयी यह तो नहीं कह सकता लेकिन यही लोग गाम में स्कूल, कॉलेज और हस्पताल बनबाने में भी रहे. रीडिंग क्लब इनमें से ही एक के घर के एक कमरे से शुरु हुआ. बाद में दरभंगा महापाज से अनुरोध पर जमीन भी मिला जहां यह आज जर्जर अवस्था में है. जगह बदला तो नाम भी बदला. गांव के प्रसिद्ध विद्वान महामहोपाधयाय डा सर गंगानाथ झा का नाम पड़ा  इसे. आज चंद उत्साही ग्रामीण इसको सक्रिय बनाने की मुश्किल कवायद में लगे हुए हैं.. आज महामहोपाधयाय डा.  झा की पुन्यतिथी के अवसर पर एक छोटा सा कार्यक्रम था मैं भी सिरकत करने गया. मन में झेंप के साथ. वे मुझे इतिहासकार मान गंभीर बातों की अपेक्षा कर रहे थे. मैं अपने को एक गमैये के तौर पर देख रहा था. और, वह भी अपनी अपूर्णता में लथपथ एक ऐसा संबंध जिसे अधिक से अधिक फ्लीटिंग ही तो कहा जा सकता है. आज हैं कल नहीं. फ्लर्ट करता हुआ सा नाता.
मेरा बचपन यहां से तीस किमी नजदीक दरभंगा मे बीता. जब गॉंव आता तो वाचनालय आकर्षित करता. महाराजी पोखर के उत्तर पूर्बी महार पर ऊंचाई में स्थित इकलौता इमारत.सन् अस्सी के शुरुआत की बात मैं कर रहा हूं. संस्था अपने अवसान पर थी. लेकिन शाम को लोग बाग जुटा करते. कुछ खेल कुद कभी कभार बृहत आयोजनो का होना भी मेरी स्मृति में शेष है.यहीं शायद सबसे पहले मैंने शाखा लगते हुए भी देखा किया था. पर, जिस कोतुहल की याद जोरदार है वह इसके वाचनालय होने को लेकर है. पुस्तकालय या लाइब्रेरी क्यों नहीं, वाचनालय क्यों?
आज जब सोचने बैठा तो पुस्तकालय को केंद्र में रख लिखी गयी एक उपन्यास, उम्बर्तो इको का 'नेम ऑफ द रोज' और जादुई यथार्थवाद के पुरोधा खोर्खे लुई बोर्खेई की लधु  कहानी 'लाइब्रेरी ऑफ बेबल' की ओर मन चला गया. नेम ऑफ द रोज पुनर्जागरण धर्मसुधार के युग की पृष्टिभूमी पर लिखे गये इटली के एक मठ की कहानी है जहां प्रतिदिन एक भिक्षु अंतेवासी की हत्या हो रही होती है.तहकीकात वहां के विशाल लाइब्रेरी की ओर ले जाते हैं अंत में पता चलता कि राज उस लाइब्रेरी के अफ्रीकी सैक्सन के एक खास किताब के पन्नो में छुपा हुआ है. तर्क और विश्वास , आस्था और जिग्यासा की जद्दोजहद में ग्यान और सत्ता के समीकरण अदभुत रुप में हमारे सामने आते हैं यहां इस लाइब्रेरी में हो रही हत्याओं के जरिये.
ऐतिहासिकता लिये हुए इस लाइब्रेरी से बहुत अलग दुनिया है बोर्खेई के लाइब्रेरी ऑफ बेबल की. यहां एक ऐसा अदभुत लाइब्रेरी है जिसमे वे सारी किताबें हैं जो दुनिया में  उपलब्ध है. जो यहां नहीं वह कहीं नहीं. इतना ही  नहीं यहां महज किताबें नहीं उन किताबों की भाषाएं और ग्यान के तमाम कोड भी हैं. मतलब जो यहा नही वह दुनिया में ही अस्तित्व में नहीं. यह एक ऐसा लाइब्रेरी है जो कल्पनातीत है लेकिन जिसकी आकांक्षा हर बाल मन पुस्तकालय में प्रवेश करते हुए करता है. जब बचपन में हम लाइब्रेरी जाते तो सोचते यहा हमारे हर सबाल का जबाब होगा. पुस्तकालय ग्यान का अकुट भंडार. लेकिन स्वस्थ समाज के लिये महज किताबी ग्यान पूर्ण नहीं. ग्यान की साझेदारी भी जरूरी. इसलिये रीडिंग क्लव. मन के साथ शरीर को भी तंदुरूस्त रखना होगा. इसलिये भी पुस्तकालय को केंद्र में रखते हुए भी एक ऐसे स्थान की परिकल्पना जहां खेलकुद और बिचार और ग्यान सबका आदान प्रदान हो सके. गाम और इसके समाज की प्रगति के लिये.  जो, आज जर्जर हो चुका है. नव उत्थान की आस संजोये. जद्दोजहद करता समय के थपेड़े से.

गांव का वाचनालय / Library and the old reading club of my village

हमारे गाम, सरिसब पाही में मेरे घर के सामने सड़क के दूसरी तरफ एक वाचनालय हुआ करता है. नाम महामहोपाधयाय सर डा गंगानाथ झा वाचनालय.बहुत पुरानी संस्था है. आजादी से बहुत पहले की. एक रीडिंग क्लब के रूप में इसकी शुरुआत हुई थी. गाम के बुजुर्ग और कर्मठ लोगों ने आरंभ किया था यह परिपाटी. प्रेरणा कहां से आयी यह तो नहीं कह सकता लेकिन यही लोग गाम में स्कूल, कॉलेज और हस्पताल बनबाने में भी रहे. रीडिंग क्लब इनमें से ही एक के घर के एक कमरे से शुरु हुआ. बाद में दरभंगा महापाज से अनुरोध पर जमीन भी मिला जहां यह आज जर्जर अवस्था में है. जगह बदला तो नाम भी बदला. गांव के प्रसिद्ध विद्वान महामहोपाधयाय डा सर गंगानाथ झा का नाम पड़ा  इसे. आज चंद उत्साही ग्रामीण इसको सक्रिय बनाने की मुश्किल कवायद में लगे हुए हैं.. आज महामहोपाधयाय डा.  झा की पुन्यतिथी के अवसर पर एक छोटा सा कार्यक्रम था मैं भी सिरकत करने गया. मन में झेंप के साथ. वे मुझे इतिहासकार मान गंभीर बातों की अपेक्षा कर रहे थे. मैं अपने को एक गमैये के तौर पर देख रहा था. और, वह भी अपनी अपूर्णता में लथपथ एक ऐसा संबंध जिसे अधिक से अधिक फ्लीटिंग ही तो कहा जा सकता है. आज हैं कल नहीं. फ्लर्ट करता हुआ सा नाता.
मेरा बचपन यहां से तीस किमी नजदीक दरभंगा मे बीता. जब गॉंव आता तो वाचनालय आकर्षित करता. महाराजी पोखर के उत्तर पूर्बी महार पर ऊंचाई में स्थित इकलौता इमारत.सन् अस्सी के शुरुआत की बात मैं कर रहा हूं. संस्था अपने अवसान पर थी. लेकिन शाम को लोग बाग जुटा करते. कुछ खेल कुद कभी कभार बृहत आयोजनो का होना भी मेरी स्मृति में शेष है.यहीं शायद सबसे पहले मैंने शाखा लगते हुए भी देखा किया था. पर, जिस कोतुहल की याद जोरदार है वह इसके वाचनालय होने को लेकर है. पुस्तकालय या लाइब्रेरी क्यों नहीं, वाचनालय क्यों?
आज जब सोचने बैठा तो पुस्तकालय को केंद्र में रख लिखी गयी एक उपन्यास, उम्बर्तो इको का 'नेम ऑफ द रोज' और जादुई यथार्थवाद के पुरोधा खोर्खे लुई बोर्खेई की लधु  कहानी 'लाइब्रेरी ऑफ बेबल' की ओर मन चला गया. नेम ऑफ द रोज पुनर्जागरण धर्मसुधार के युग की पृष्टिभूमी पर लिखे गये इटली के एक मठ की कहानी है जहां प्रतिदिन एक भिक्षु अंतेवासी की हत्या हो रही होती है.तहकीकात वहां के विशाल लाइब्रेरी की ओर ले जाते हैं अंत में पता चलता कि राज उस लाइब्रेरी के अफ्रीकी सैक्सन के एक खास किताब के पन्नो में छुपा हुआ है. तर्क और विश्वास , आस्था और जिग्यासा की जद्दोजहद में ग्यान और सत्ता के समीकरण अदभुत रुप में हमारे सामने आते हैं यहां इस लाइब्रेरी में हो रही हत्याओं के जरिये.
ऐतिहासिकता लिये हुए इस लाइब्रेरी से बहुत अलग दुनिया है बोर्खेई के लाइब्रेरी ऑफ बेबल की. यहां एक ऐसा अदभुत लाइब्रेरी है जिसमे वे सारी किताबें हैं जो दुनिया में  उपलब्ध है. जो यहां नहीं वह कहीं नहीं. इतना ही  नहीं यहां महज किताबें नहीं उन किताबों की भाषाएं और ग्यान के तमाम कोड भी हैं. मतलब जो यहा नही वह दुनिया में ही अस्तित्व में नहीं. यह एक ऐसा लाइब्रेरी है जो कल्पनातीत है लेकिन जिसकी आकांक्षा हर बाल मन पुस्तकालय में प्रवेश करते हुए करता है. जब बचपन में हम लाइब्रेरी जाते तो सोचते यहा हमारे हर सबाल का जबाब होगा. पुस्तकालय ग्यान का अकुट भंडार. लेकिन स्वस्थ समाज के लिये महज किताबी ग्यान पूर्ण नहीं. ग्यान की साझेदारी भी जरूरी. इसलिये रीडिंग क्लव. मन के साथ शरीर को भी तंदुरूस्त रखना होगा. इसलिये भी पुस्तकालय को केंद्र में रखते हुए भी एक ऐसे स्थान की परिकल्पना जहां खेलकुद और बिचार और ग्यान सबका आदान प्रदान हो सके. गाम और इसके समाज की प्रगति के लिये.  जो, आज जर्जर हो चुका है. नव उत्थान की आस संजोये. जद्दोजहद करता समय के थपेड़े से.

गांव का वाचनालय / Library of my village

हमारे गाम, सरिसब पाही में मेरे घर के सामने सड़क के दूसरी तरफ एक वाचनालय हुआ करता है. नाम महामहोपाधयाय सर डा गंगानाथ झा वाचनालय.बहुत पुरानी संस्था है. आजादी से बहुत पहले की. एक रीडिंग क्लब के रूप में इसकी शुरुआत हुई थी. गाम के बुजुर्ग और कर्मठ लोगों ने आरंभ किया था यह परिपाटी. प्रेरणा कहां से आयी यह तो नहीं कह सकता लेकिन यही लोग गाम में स्कूल, कॉलेज और हस्पताल बनबाने में भी रहे. रीडिंग क्लब इनमें से ही एक के घर के एक कमरे से शुरु हुआ. बाद में दरभंगा महापाज से अनुरोध पर जमीन भी मिला जहां यह आज जर्जर अवस्था में है. जगह बदला तो नाम भी बदला. गांव के प्रसिद्ध विद्वान महामहोपाधयाय डा सर गंगानाथ झा का नाम पड़ा  इसे. आज चंद उत्साही ग्रामीण इसको सक्रिय बनाने की मुश्किल कवायद में लगे हुए हैं.. आज महामहोपाधयाय डा.  झा की पुन्यतिथी के अवसर पर एक छोटा सा कार्यक्रम था मैं भी सिरकत करने गया. मन में झेंप के साथ. वे मुझे इतिहासकार मान गंभीर बातों की अपेक्षा कर रहे थे. मैं अपने को एक गमैये के तौर पर देख रहा था. और, वह भी अपनी अपूर्णता में लथपथ एक ऐसा संबंध जिसे अधिक से अधिक फ्लीटिंग ही तो कहा जा सकता है. आज हैं कल नहीं. फ्लर्ट करता हुआ सा नाता.
मेरा बचपन यहां से तीस किमी नजदीक दरभंगा मे बीता. जब गॉंव आता तो वाचनालय आकर्षित करता. महाराजी पोखर के उत्तर पूर्बी महार पर ऊंचाई में स्थित इकलौता इमारत.सन् अस्सी के शुरुआत की बात मैं कर रहा हूं. संस्था अपने अवसान पर थी. लेकिन शाम को लोग बाग जुटा करते. कुछ खेल कुद कभी कभार बृहत आयोजनो का होना भी मेरी स्मृति में शेष है.यहीं शायद सबसे पहले मैंने शाखा लगते हुए भी देखा किया था. पर, जिस कोतुहल की याद जोरदार है वह इसके वाचनालय होने को लेकर है. पुस्तकालय या लाइब्रेरी क्यों नहीं, वाचनालय क्यों?
आज जब सोचने बैठा तो पुस्तकालय को केंद्र में रख लिखी गयी एक उपन्यास, उम्बर्तो इको का 'नेम ऑफ द रोज' और जादुई यथार्थवाद के पुरोधा खोर्खे लुई बोर्खेई की लधु  कहानी 'लाइब्रेरी ऑफ बेबल' की ओर मन चला गया. नेम ऑफ द रोज पुनर्जागरण धर्मसुधार के युग की पृष्टिभूमी पर लिखे गये इटली के एक मठ की कहानी है जहां प्रतिदिन एक भिक्षु अंतेवासी की हत्या हो रही होती है.तहकीकात वहां के विशाल लाइब्रेरी की ओर ले जाते हैं अंत में पता चलता कि राज उस लाइब्रेरी के अफ्रीकी सैक्सन के एक खास किताब के पन्नो में छुपा हुआ है. तर्क और विश्वास , आस्था और जिग्यासा की जद्दोजहद में ग्यान और सत्ता के समीकरण अदभुत रुप में हमारे सामने आते हैं यहां इस लाइब्रेरी में हो रही हत्याओं के जरिये.
ऐतिहासिकता लिये हुए इस लाइब्रेरी से बहुत अलग दुनिया है बोर्खेई के लाइब्रेरी ऑफ बेबल की. यहां एक ऐसा अदभुत लाइब्रेरी है जिसमे वे सारी किताबें हैं जो दुनिया में  उपलब्ध है. जो यहां नहीं वह कहीं नहीं. इतना ही  नहीं यहां महज किताबें नहीं उन किताबों की भाषाएं और ग्यान के तमाम कोड भी हैं. मतलब जो यहा नही वह दुनिया में ही अस्तित्व में नहीं. यह एक ऐसा लाइब्रेरी है जो कल्पनातीत है लेकिन जिसकी आकांक्षा हर बाल मन पुस्तकालय में प्रवेश करते हुए करता है. जब बचपन में हम लाइब्रेरी जाते तो सोचते यहा हमारे हर सबाल का जबाब होगा. पुस्तकालय ग्यान का अकुट भंडार. लेकिन स्वस्थ समाज के लिये महज किताबी ग्यान पूर्ण नहीं. ग्यान की साझेदारी भी जरूरी. इसलिये रीडिंग क्लव. मन के साथ शरीर को भी तंदुरूस्त रखना होगा. इसलिये भी पुस्तकालय को केंद्र में रखते हुए भी एक ऐसे स्थान की परिकल्पना जहां खेलकुद और बिचार और ग्यान सबका आदान प्रदान हो सके. गाम और इसके समाज की प्रगति के लिये.  जो, आज जर्जर हो चुका है. नव उत्थान की आस संजोये. जद्दोजहद करता समय के थपेड़े से.