मेरे घाव से अब नये पीव भी नहीं आते।
मवाद के बदले रीस रीस कर बहराते हैं शब्द।
वह भी संतुलित, सुरुचिपुर्ण, सुंदर और सोद्देश्य।
अब-तब में न तो अ का डंडा टेढ़ा होता है और न ही ब का पेट बड़ा।
सीघी सी लकीर है सांस लेते जाने की।
मवाद के बदले रीस रीस कर बहराते हैं शब्द।
वह भी संतुलित, सुरुचिपुर्ण, सुंदर और सोद्देश्य।
अब-तब में न तो अ का डंडा टेढ़ा होता है और न ही ब का पेट बड़ा।
सीघी सी लकीर है सांस लेते जाने की।
No comments:
Post a Comment