1
सबसे पहले तुम, शशि।
इसलिये नहीं कि...
इसलिये भी नहीं कि...
और, इसलिये तो नहीं ही कि...
कम परते जाएंगे तैंतीस ऐसे इसलिये
फिर भी मैंने जिद्द पकड़ ली है। तुमसे ही तो सिखा है मैंने जिद्द करना।
सबसे पहले तुम, शशि।इसलिये कि शेखर शशि नहीं है। शेखर शशि सा भी नहीं हैं। तो शुरुआत इस नकारात्मकता से क्यूंकर आखिर। पर, ऐसा करने बाला भला मैं पहला भी तो नहीं। शेखर शशि सा नहीं, यह मायने नहीं रखता। दो व्यक्तित्व क्यों कर समान हों? लेकिन, शेखर शशि सा होने की कभी इच्छा भी नहीं रखता।शेखर के बनने में शशि को मिट जाना था। इस मिट जाने से शेखर का पुरुष बन पाया। इसमें शशि ने अपने को न्योछावर कर दिया। कतरा कतरा, तिल तिल। शेखर में पुरुष वह सब खोज लेता है जिसकी अभिलाषा उसे होती है। शेखर में शशि ने भी सबकुछ तो पा ही लिया। पर, शेखर तुम नारी नहीं बन पाये। तुम रह गये निरा पुरुष ही।
2
तुम तो शेखर मुसलमान भी नहीं हुए। तुम हरिजन और दलित भी नहीं हो पाये। तुमने रोमांस और दुख दोनो का अर्जन किया। विरासत में न तो तुम्हें दुख मिला, न ही अपमान। जब तुम अपने लंबे और बेढ़ब हाथ को छुपाने का जतन कर रहे थे, उस समय भी तुम्हारी स्मृतियां निजु ही तो रही। कब तुमने भोगा वह जिसपर तुम्हारा कोई बस नहीं हो? कब तुम्हें मिला तिरस्कार और उपेक्षा थाती में? औपनिवेशिक तिरस्कार की स्म़ति, अपराधी करार दे दिये जाने ने जब तुम्हें दुख और दुख से दृष्टि दी-- विजन, तब क्या तुमने सोचा मुसलमान के बारे में, दलित के बारे में और स्त्री होने की क्या अभिलाषा की कभी तुमने?
तुम एक वैश्विक नर होना चाहते थे। बंधनमुक्त, अपने निजुता में परिपूर्ण। स्वतंत्र। पूर्ण। अंग्रेजी कविताओं और संस्कृत से उर्जा लेते हुए। उपमहाद्वीप के दक्षीण में बचपन से लेकर, गंगा पर बहते हुए स्मृतियों के साथ, पश्चिम से पूरब को लांधते हुए। बोगनबेलिया की डांठ को खोसते हुए कभी कुसुम और चंपा की याद तुम्हें नहीं आयी? क्योंकर, शेखर?
इतिहास और साहित्य और प्रांजल भाषा और नक्शे बाले भूगोल के चौखटे से जरा बाहर तो निकलते। जरा सा करते लोक का पसारा, शेखर।
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