Tuesday, February 02, 2016

गिरीन्द्र नाथ झा, इश्क में माटी सोना. लप्रेक.

जगहों में पदानुक्रम हुआ करता है. ऊंच-नीच, भेद-भाव, अगड़ा-पिछड़ा...जैसे हमारा समाज जाति, धर्म, वर्ग, लिंग आदि खांचों में बंटा है उसी तरह जगहों के अपने खांचे हुआ करते हैं. अपने अपने तयशुदा दड़बों में जिंदगी गुजारने को अभिशप्त.
और, फिर हम यात्रा करते हैं इस शाप से मुक्ति की टोह में. सामाजिक और स्थानजनित भेद को लांघने की जद्दोजगद से लबरेज. एक जगह से दूसरी जगह. एक दायरे से दूसरे में. बृत से त्रिकोण, गुफा से जंगल, जंगल से गांव, फिर कस्बा, मुफस्सिल, शहर, और फिर महानगर. यह गमन एक रेखीय हो यह भी तो नहीं. रास्ते घुमावदार हुआ करते हैं. पेचिदगियां. खयाल की तरह जाते जाना भी और ध्रुपद की तरह सम की अनिवार्यता भी. यात्रा मानसिक धरातल पर हुआ करती है और भौगोलिक पर भी. शब्दो और सुरों की भी, विचारों की भी और पुन्य की तलाश की भी.
यह कतई जरुरी नहीं कि यात्राएं हमेशा जगहों के हाइरार्की को चुनौति ही दें. हममे से अधिकतर भेड़ चाल में यात्रा करते हैं. इससे तो जगहों की तय दादागीरी मजबूत ही होती है. जब हम इस भेड़ चाल से अलग होते हैं तो जगहों के बने बनाये खांचे को चुनौति देते हैं. गिरिन्द्र का लप्रेक, इश्क में माटी सोना कुछ इसी तरह जगहों की पक्की सड़क को लांघता है. पक्की से कच्ची पर लौटते हुए तीसरी कसम का गाड़ीबान "लीक और बैलों पर ध्यान लगाकर बैठ गया. राह काटते हुए गाड़ीबान ने पुछा-'मेला टूट रहा है क्या भाई?'...छत्तापुर- पचीरा कहॉं है? कहीं हो, यह लेकर आप क्या करियेगा?"
मन, बैलगाड़ी के टप्पर से मुक्त निरगुण गाने लगता है -- "अरे, चलु मन,  चलु मन ससुरार जइवे हो रामा,
कि आहो रामा,
नैहरा में अगिया लगायब रे- की••• "
कहीं और ही से पंकज मलिक की तान गुंजती है --'मन रे तु काहे न धीर धरे... ओ निर्मोही..."

चनका-पुरेनिया- दिल्ली-चनका. शब्द, स्मृति, अनुभव, उलझने और आस. सब तैरते हैं यहां इस लप्रेक में. ऐसी ही हूक जगाती आस में "उसने धीरे से कहा--अबकी सावन में बारिश के लिये दुआ करूंगी' ".
विक्रम नायक के किरदार इस सुहानी मेघ की कथा कहते हैं, खुबसुरत लकीड़ों और शब्दों की पगडंडी पर हाथ थामे दो नन्हें पैर.
और परती परिकथा का जितेन 'सबकुछ' छोड़कर गांव लौट आता है. शब्द और बीज दोनो के साथ. आस के साथ. स्मृतियों के साथ, जो वहां भी थी. जो यहां भी हैं.
यहां जमीनी हकीकत कच्छपपीठा धरती की तान को सुरसा समान निगलने को मुंह फारे खड़ा है. तो साथ ही कबीराहा मठ की तान और दिल्ली में कॉफी मग की झाग पर गुनगुनाती फेनिल हँसी भी.
यह एक ऐसी सुरीली हँसी है जो दिल्ली के मुखर्जी नगर के कमरे की दीवारों से लेकर चनका के खेत और बंसबिट्टी तक पसरी हुई है... वही बंसबिट्टी जिसे स्नेहा 'बांस की बाड़ी'' ' कहा करती है.
गिरीन्द्र नाथ झा, इश्क में शहर होना ( चित्रांकण, विक्रम नायक), राजकमल, दिल्ली, 2015.

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