Friday, January 29, 2016

आज अचानक तुम्हारा 'अ' लिखना मन में घर कर गया. और नींद से बोझल आंखों से रात जैसे उचक कर खिड़की के बाहर झांक रही गुलमुहर की साख पर बैठ गयी. अब मनाओ पहले तो उतरूं मैं नीचे. वरना मैं तो खेलती रहूंगी उसी 'अ' की स्मृति से. अब भला मनाऊँ भी तो कैसे? यादें है कोई जोतखी के पतरे से निकला हुआ दिन तो है नहीं कि अमुक अधपहरे और फलाने शेख देख कर आए. ये तो दबे पांव कुछ ऐसे आती है कि जीने चढ़ भी जाये तो भी क्या मजाल कि हवा तक को भनक भी लगे. कुछ उसी कदर आया उसके अ लिखने की याद. पर, इससे मन बेचैन न होता. उलझन का कारण यह कि मुझे उसका 'अ' लिखना तो याद आया पर वह अ भुल गया. दिमाग पर जितना जोड़ डालता उतना ही कन्फ्युज होता जाता. उसकी पतली साफ उंगलियां गोल मुड़ती और जादुई अ बनता. मैं चकित देखा करता. हिंदी डिकटेशन में हमेशा पिछड़ा ही तो रहा. लेकिन गम किसे था. हमेशा सोचता वो भी तो रोशनाई बाली फाउंटेन पेन से ही लिखा करती जनकपुर से आये विल्सन से. फिर मेरी ऊँगली स्याही से बदरंग और उसकी इतनी साफ क्योंकर? जबाब सोचते सोचते उन रातों को कब नींद आ जाती पता ही नहीं चलता. पर, आज की रात? क्या जाने?

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