Thursday, September 24, 2015

उन्हीं दिनों की बात है जब गर्मियों की छुट्टी में, दुर्गा पुजा में और दिसंबर मे वार्षिक परीक्षा के बाद हम लोग दरभंगा से अपने गाम जाया करते. महज 29-30 किलोमीटर की यात्रा. भीड़ भरे बस, 1753, 2153... और एसी ही अनेकों 53 प्रत्यय वाली लाल मुंह की बसें. वहां गर्मी में सुबह अंघेरे आम तुड़बाने जाया करते, दलान में सोते, छोटी छोटी कपों में चाय पीया करते वह भी भोर होने से पहले. यहां यह जोड़ देना जरुरी है कि दरभंगा डेरा पर मां का चाय पर पहड़ा हुआ करता और हम बच्चों को चाय नहीं मिलता. पर गाम में मेरे पितामह, हमारे बबा का दलान मॉ की पहुंच से बहुत दुर हुआ करता. जब तक सुर्योदय होता हम लोग गाछी से लौट भी रहे होते. फिर आम का पाल लगाया जाता, घूप लगाया जाता और छंटनी होती. मोहनजी भाईजी के नेतृत्व में, बांकी सब उनके अस्सिटेंट हुआ करते. अबतक, मॉ की तरफ से तैयार होने का और जलखई करलेने का दबाब बढ़ने लगता और हम सब घर के ही छोटे पोखर का रूख कर रहे होते. पूरा दिन खेल, शोर शरावा. दिन भर इधर से उधर बौआना, कभी मोछ की चटनी तो कभी कच्चे आम का झक्का. मौलवी सहाब की दुकान से बंसी और तरैला लाना और बुढ़िया कब्बडी का खेल. लेकिन यह सब तो गाम पहुंचने के कुछ देर बाद या फिर अगले दिन शुरु होता. गाम में बस रुकते ही गोसौन को गोड़ लगने और बड़ों का आशिर्वाद लेने के ठीक बाद या शायद उससे भी पहले सबसे पहले भाग कर छत पर चढ़ जाते. पहली मंजिल पर एक खाली चौकोर कमरा महज एक चारपायी निवासी. अंगूर की बेलें और खट्टी खट्टी लेकिन बेहद रसीली गहरे रंग की अंगूर. पर मंजिल तो अभी आगे हुआ करता, उस एकाकी छत वाले कमरे के छत पर जाना. लकड़ी की एक सुरूची पूर्ण सीढी हुआ करती और हम उसे चढ़ ऊपर सबसे ऊंचे छत पर चढ़ जाते. जालीदार खुबसुरत रेलिंग की सुरक्षा में सामने पूरा पसरा हुआ पूब. बाल मन में किसी का कहा बात घर कर चुका था कि साफ आसमान में हमारे गाम के उस छत से हिमालय की वर्फ भरी चोटियॉं दिखती थी. दूर तक पसरे पूब और ऊत्तर की कोण में मैं कभी यह तय नहीं कर पाता कि जो दख रहा होता वह उजले नीले वादल हुआ करते या सचमुच हमारी किस्मत हमारी साथ दे रही होती और हिमालय ही के दर्शन हो रहे होते. सत्य को किसने देखा. विग्यान जिसने इस सत्य को देख लेने का दावा किया, उन दिनों मुझसे तो दूर ही था. हिमालय पहाड़ या उजले नीले वादल तुम जो भी थे मुझे पसंद थे. एक उत्तर बिहार में पलने बाले मन में तुमने हिम आच्छादित पहाड़ देखने की ललक को जगाये रखा.

Wednesday, September 16, 2015

हॉफ सेट चाय: लाइब्रेरी स्पेशल और तीन मुर्ती


यह उन दिनों की बात है जब लाइब्रेरी स्पेशल चला करता था. दिल्ली विश्वविद्यालय से दोपहर बाद खुलता था और सभी प्रमुख लाइब्रेरी एवं आर्काइब भी जाया करता. इसी लाइब्रेरी
स्पेशल में पहले पहल देखा किया उसे. डी स्कूल के स्टाप पर बस में आयी वह. गहरे कत्थई दुपट्टे और बहुत हल्के क्रीम कलर की सूती सूट. सूट का रंग कुछ यूं कि किसी बहुत बड़े दुध के थार में एक चुटकी भर चंपई मिला दिया गया हो.
ये मेरा उस बस में पहला दिन था. ये मेरा तीन मुर्ती का भी पहला दिन था. अब तक यह सोचा करता हूं कि यह महज संयोग तो न था कि तीन मुर्ती के गेट पर उतरने बाले उस दिन महज हम दोनों ही थे. पहल उसने ही की थी, शायद तकाजे के लिये ही. एक बेहद संतुलित मुस्कान के साथ जो उस खाली बर्तन की तरह जिसमें चाहे आप जितनी कल्पना, जितने सपने भर दें, वह कभी लवरेज नहीं हो.एक ऐसी ही आत्मीय मुस्कान. तीन मुर्ती के विशालकाय एतिहासिकता की ताकीद कराता गेट, उसके अंदर जतन से संवारा गया उतना ही विशाल लॉन और उसके पीछे, नजर के दूसरे छोड़ पर एक भब्य इमारत. नेहरू जी का घर.
मैं मुस्कान को जेहन में लपेटे अपनी संकुचाहट के साथ उसके पीछे हो लिया. मुझे ठीक ठीक याद है वह उस दिन चॉंद का फांसी अंक देख रही थी, पहले फ्लोर पर माइक्रोफिल्म रीडर पर. मैं चुपचाप उत्सुकता से उसे देख आया था. यह कहना मुश्किल कि मैं लाइब्रेरी से रुबरु हो रहा था या फिर यह जानने कि वह क्या कर रही है. यह भी ठीक ठीक नहीं कह सकता कि मैं किस बात से अधिक चमत्कृत था: माइक्रोफिल्म रीडर से या फिर चांद के फांसी अंक की वह तस्वीर जो उस रीडर के पटल पर उस पल अपने धुंधलके में चमक रही थी. यह सिलसिला चल पड़ा. मैं चुपके से देख आया करता कि वह क्या पढ़ रही है. और, धीरे धीरे उस पुस्तकालय के कोनों से लगाव वढ़ने लगा. मैन्युस्क्रीप्ट सैक्शन में जहां मुझे यह विश्वास था कि महज नेहरू और कांग्रेस के दस्तावेज होंगे वहां वह माखन लाल चतुर्वेदी के खतो किताबत में मशरूफ पायी जाती. माइक्रोफिल्म पर सावरकर और मुंजे की हस्तलिखित दस्तावेज में आंख डूबोए मिलती और, ब्रिटिश हुकुमत द्वारा बैन किये प्रतिवंधित साहित्य गदर की गूंज के गुरूमुखी को उतारते हुए भी मुझे वो याद है. ऐसा नहीं कि उसे मेरी चोरी का पता नहीं हो. उसने बहुत बाद में मुझे बताया था कि लड़कियों के पीठ पीछे भी दो आंखे हुआ करती हैं और फिर उसने एक बहुत आश्वस्त करने वाली भाव प्रकट की थी. कुट्टी के कैंटीन के बाहर अहाते में आटम ब्रेक के बाद वह पहला दिन था. हम एक दूसरे से अरसे बाद मिल रहे थे. उसने ही कैंटीन चल चाय पीने का प्रस्ताव रक्खा था. हवा में हल्की रेश्मी ठंडक आ गयी थी. हॉफ सेट चाय टेबल पर आ चुका था. चाय प्याले में उड़ेलते हुए उसने पुछा था कि मैं आजकल क्या पढ़ रहा हूं. फिर, यह भी कहा था कि अगले कुछ सप्ताह वह जेनयु की लाइब्रेरी में दिनमान के साठ के दशक की प्रतियां ओर मारवाड़ी लाइब्रेरी में कुछ समय बिताएगी. फिर हम रघुबीर सहाय और 'शेखर' की बात करने लगे. चाय के बाद उस शाम मैं अपने कमरे देर से लौटा.

Thursday, September 10, 2015

Artists Residency Programme in village Chanka, Purnea, Bihar.

Girindranath Jha is a farmer. Apart from farming, he is a prolific writer on social media and in hindi news papers. He plans to start a residency programme in his village, Chanka ( District Purnea, in the region of Kosi river, Bihar). Those interested in spending some quiet and quality time and pursue creative work, writing, research etc may find his invitation lucrative.
Girindranath Jha is a dynamic young man and quite passionate about his fields and crops. Earlier, he was a journalist with leading hindi news papers but left the urban life style and occupation for his love of farming, region and rural life. He now divides his time between Purnea and his village, Chanka which is located some 25 kms from the small town of Purnea. The residency will be located in the village Chanka.
He may be contacted at girindranath@gmail.com

Below is his write up posted on different social media plateform.
बहुत दिनों से इच्छा थी कि अपनी मन की एक बात यहां सार्वजनिक करूं। बात कहिये या फिर एक किसान की योजना। दरअसल मैं अपने गाँव चनका में एक रेसीडेन्सी प्रोग्राम शुरू करना चाहता हूँ। चनका एक गाँव है जो बिहार के पूर्णिया जिला में स्थित है।
रेसीडेन्सी प्रोग्राम बेहद सामान्य तरीके से आरम्भ करूंगा। जहां कला, साहित्य, पत्रकारिता और अन्य विषयों में रूचि रखने वाले लोग आएं और गाम-घर में वक्त गुजारें। गाँव को समझे-बूझें। खेत पथार, तलाब कुंआ...ग्राम्य गीत..आदि को नजदीक से देखें।
बाबूजी की स्मृति में यह रेसीडेन्सी आरम्भ करने का इरादा है। मेरे पिता वैसे तो एक किसान थे लेकिन  उन्होंने अपना जीवन किसानी के संग रेणु साहित्य और अंचल के लिए समर्पित किया, अब  मैं उनकी यादों के सहारे इस काम को आगे बढ़ाना चाहता हूँ।
इस सम्बन्ध में आपलोगों का सुझाव चाहिए, आखिर कैसे इस काम को आगे बढ़ाया जाए। मैंने 1000 किताबें जमा की है लाइब्रेरी के लिए। दो बेडरूम, एक किचन, डाइनिंग स्पेस , बाथरूम, बरामदा के साथ एक छोटा सा कॉटेज तैयार किया है, जिसे फाइनल टच देना बाँकी है।
पूर्णिया शहर से 25 किलोमीटर की दूरी पर चनका गाँव है। आप सबों से आग्रह है कि सुझाव दें ।
किसानी करते हुए एक नई शुरुआत करना चाहता हूँ। किसानी को इस तरह जीना चाहता हूँ , जिससे आने वाली नई पीढ़ी भी गाँव की तरफ मुड़े। किसानी को भी लोगबाग पेशा समझे। किसानी से लोगों का मोह भंग न हो।
आप सब कुछ सुझाव दें ताकि मैं काम को आगे बढ़ा सकूं।