Saturday, December 17, 2011

भीड़, जनसमुदाय और राजनीति: अन्‍ना के बहाने

अरे रे राष्ट्रियश्‍यालक! एह्येहि स्‍वस्‍याविनयस्‍य फलमनुभव। (तत: प्रविशति पुरूषैरधिष्ठित: पश्चाद्‍बाहुबद्ध: शकार:।) {अरे, राजा के शाले! आओ आओ, अपनी धूर्तता का फल भोगो। इसके बाद लोगों द्वारा पकड़ा गया, पीछे बन्धे हुये हाथों वाला शकार प्रवेश करता है।)} दशम् अंक, शूद्रक कृत मृच्‍छकटिकम्, अनुवाद, जयशंकरलाल त्रिपाठी।

02261550789 is no Pe ap miss cal dijiye. ye kiran bedi ka lokpal bill implement krne k liye vote h. 25 crore pple support chahiye Received: 10:53:20am 20-08-2011 From (no name) +919015456543


मृच्‍छकटिकम् का संस्‍कृत के नाट्य-साहित्‍य में अद्वितीय स्‍थान है। चारूदत्त और वसंतसेना के प्रेम के लिये विख्‍यात इस नाटक को कम लोग राजनैतिक ऊथल-पुथल के उस पृष्ठभूमि के लिये याद रखते हैं जो नेपथ्य में चलता है। साथ ही, प्राकृत का आधिक्य इस नाटक के भाषा को अत्यंत स्‍वाभाविक रुप से समकालीन जन-मानस से जोड़ता है। किसी भी दूसरे संस्‍कृत नाटक में शायद ही इतने प्रकार की प्राकृत का उपयोग हुआ हो। किंचित ही समाज के भिन्‍न-भिन्‍न तबकों का इस कदर प्रतिनिधित्‍व हुआ हो। मृच्‍छकटिकम् में शकार राजा का बिलासी, भ्रष्‍ट और आततायी साला है जिसे ऊपर उल्‍लिखित दशमे अंक में लोगों (पुरुषैरधिष्‍ठित) ने पकड़ा है। मेरे लिये यह दृश्य मानीखेज है। यूं तो राजा को मारने में शार्विलक, जो एक चोर है, का साहस और पराक्रम काम आता है लेकिन लोगों की भीड़ ने ही शकार को पकड़ा। मुझे और कोई नामचीन उद्धरण का ध्‍यान नही आता जब प्राचीन भारत में या फिर मध्‍यकाल में भी लोगों, जनता को सत्‍ता समीकरण बदलने में सक्रिय भूमिका अदा करते दिखाया गया हो। यही मृच्‍छकटिकम् को राजनीति के अध्‍ययन के लिये महत्‍वपूर्ण बनाता है।
मेरे लिये सवाल यह है कि लोगों के इस भीड़ को कैसे देखें? दूसरे शब्‍दों में हम किसी जन-समुदाय के राजनीतिक चरित्र का आकलन किन रुपों मे करें? यह अटपटा लग सकता है कि जहां एक ओर राजनैतिक इतिहास षडयंत्रों, बगावत, क्रांति, विद्रोह और आंदोलनों से भरा परा है बहुत कम लोगों ने जनता के इस समुह की ओर ध्‍यान दिया है। अधिकांशत: विद्वानों ने सामुहिकता को विचारधारा के इतिहास या फिर उसके धार्मिक उन्‍मादों के तराजू से ही तौला है। ऐसे में एक इतिहासकार जिसका जो अपनी जमात से अलग नजर आता है वह है जार्ज रुदे। फ्रांसिसी क्रांति के समय के भीड़ के अध्‍ययन से इन्‍होने यह खंडित किया कि भीड़ सदैव ही किसी बाह्य कारकों या उद्देश्‍यों के प्रभाव में आकर क्रांति में हिस्‍सा लेती है। यहां गौरतलब है कि इनसे पहले विद्वानों की एक पूरी जमात भीड़ को नकारात्‍मक अंदाज में ही देखती रही। जैसे कि एडमंड बूर्के ने 1789 में वर्साय के किले पर हल्‍ला बोलने वाली भीड़ को हत्‍यारों, अपराधियों और रक्त-पिपासू लफंगों का मिला-जुला रुप कहा था।
भीड़ का नकारात्‍मक चरित्र महज फ्रांसिसी विद्वानों या क्रांति के पृष्ठभूमि तक सीमित हो ऐसा नहीं है। भीड़ को लगभग हर देश में गलत नजरिये से ही देखा जाता रहा है। इसके दो मुख्‍य कारण हैं। पहला भीड़ के प्रति हमारी अज्ञानता को लेकर है। हम भीड़ के बारे में बहुत कम जानते हैं। भीड़ के बारे में सदैव ही हमसे अधिक हमारी सरकारें और प्रशासन जानती है और हम अक्‍सर ही उनके बताये सूचनाओं और उनके सुझाये नजरिये पर बिना सवालिया निशान लगाये अपना लेते हैं। यह हमारे लिये सुविधाजनक भी होता है। इसलिये भी शायद भीड़ के अध्‍ययन को कमोबेश इतिहासकारों ने भी नजर अंदाज किया है। रुदे ने भी कहा है कि लीडरानों और वैचारिक अगुओं के विपरीत ( जो अपने पीछे लिखित पोथियां, लेख और दस्‍तावेज छोड़ जाते हैं) इतिहास में भीड़ अपने पीछे शायद ही कुछ लिखित इबारत छोड़ता था। यदि कुछ बचा रह जाता तो वह था पुलिसिया दस्‍तावेज जिनको नये सिरे से पढ़ने की जरुरत शेष रह जाती है। औपनिवेशिक भारत के संदर्भ में इन्‍ही दस्‍तावेजों के अनूठे विश्‍लेषणों के द्वारा उपाश्रयित इतिहास के अध्‍येताओं जैसे रंजित गुहा ( संथाल विद्रोहों के संवंध में) और शाहिद अमीन (चौरी-चौरा के ऊपर) ने भीड़ को देखने का नया अंदाज प्रदान किया जिसपर चर्चा करना इस छोटे से आलेख में संभव नहीं है।
भीड़ के प्रति नकारात्‍मकता का दूसरा कारण ( जो पहले से बहुत मिलता है) है भीड़ का भय। गौर तलब हो कि यह इस खौप का स्रोत भीड़ की गतिविधियों और उसकी कारगुजारियों के बजाय उसके तथाकथित उन्‍मादी सामर्थ्‍य में निहित होता है। इस रुप में भीड़ का परिचय अक्‍सर ही उसके संभाव्‍य, उसके कर-गुजरने की क्षमता से तय होता है दूसरे शव्‍दों में भीड़ के उपर हमेशा ही आशंकाओं के बादल चिपके रहते हैं जो हमे भीड़ से खौपजदा किये दूर रहने की नसीहत देते रहते हैं। लेकिन खौप किसके लिये? कौन है जो नसीहत देता है हमारे अपने मन की विथियों में छुपकर। यह भय स्‍थापित मान्‍यताओं के रक्षकों, सत्‍ताधारियों और समाज के कुलीनों के द्वारा पैदा की जाती है और वही भीड़ के चाल से पहले ही भीड़ को खलनायक बना डालते हैं। लेकिन यही सत्‍ता विरोध भीड़ को मूल रुप में उसका राजनैतिक चरित्र भी प्रदान करती है। यहां भीड़ का समुहवाद लोकवाद(populism) और राजनैतिकता(political) दोनो की सीमाओं को एक दूसरे से जोड़ता है.भीड़, लोकवाद और राजनैतिकता के इस घाल-मेल के सहारे मैं हाल के अन्‍ना हजारे के अनशन और जनलोकपाल बिल से संवंधित आंदोलन (अगस्‍त 2011) के कुछ पहलुओं से जुड़े सवालों को रेखांकित भर करने का प्रयास करुंगा। लेकिन आलेख का बृहतर उद्देश्‍य भीड़ के राजनैतिक चरित्र और उस नजरिये की पड़ताल करना है जहां सामुहिकता (खासकर अनियंत्रित) भय का स्रोत बन जाती है।
जैसा कि मैंने उपर जिक्र किया, जन-समुदाय के सामुहिकता के प्रति नकारात्‍मक रुख के पीछे एक बड़ा कारक उसके नियंत्रण का मसला है, बस्‍तुत: शासन का मसला। यहां मिशेल फूको का ग्‍वर्मेंटालिटी के उपर दिये गये प्रख्‍यात लेक्‍चर का उल्‍लेख करना चाहुंगा। इनहोने कहा है कि अठारहवीं सदी से यूरोप में सरकार, जनसंख्‍या और पोलितिकल इकोनोमी तीनों एक दूसरे से गुत्‍थम गुत्‍थ हो गये। ये तीन प्रांत (teritory), जनता और अर्थ-व्‍यवस्‍था के एकीकृत संरचना के रुप में दिखाई पड़ते हैं। फूको के ग्‍वर्मेंटालिटी में तीन बातें हैं:
1. संस्‍था, कार्यविधी, विविचना और टिप्‍पणियां(रेफलेक्‍शनस्),गणना और टैक्‍टिक्‍स का सम्‍मिलन जो सत्‍ता के इस तरह के अनोखे लेकिन संश्‍लिष्‍ट रूप के कार्यान्‍वयण की अनुमति दे, जिसका मुख्‍य टारगेट जनसंख्‍या हो, ज्ञान की मुख्‍य संरचना पालिटिकल इकोनामी हो, और सुरक्षा के तंत्र जिसके प्रधान तकनीकि साधन हों।
2.वह रुझान जिसने, लंबे अरसे से और समूचे पश्‍चिम में, सतत रुप में अन्‍य सभी रुपों ( संप्रभूता, अनुशासन आदि) के उपर ऐसे सत्‍ता रुप का वर्चस्‍व बनाया जिसे सरकार का नाम दिया जा सकता है, जिसके परिणामत: जहां एक ओर खास खास तरह के एक समूचे सरकारी तंत्र की स्‍थापना हुई, वहीं दूसरी ओर, अपनी पूरी संश्‍लिष्‍टिता के साथ ग्‍यान-तंत्रों (saviors) का विकास भी हुआ।
3.वह प्रक्रिया, या फिर प्रक्रियाओं का परिणाम, जिसके द्वारा पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी में मध्‍य युगीन न्‍याय प्रशासनिक राज्‍य में तबदील हो गयी और क्रमश: सरकारीकृत (ग्‍वर्मेंटलाइज्‍ड) हो गयी।
फूको से प्राप्‍त अंतर्दृष्‍टि के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह लोगों का शासन के ईकाईयों में तबदील हो जाने का इतिहास है। यहां उनका आत्‍म एक सर्वथा नये अवतार में आकार ले रहा है। यह जन-समुदाय का एक ऐसे भीड़ में कायान्‍तरण है जिसका एक ही संदर्भ शेष रह जाता है उसे कैसे नियंत्रित किया जाय( सत्‍ता के अनुरुप या सत्‍ता के विरुद्ध)।
इस नजरिये से देखने पर यह बहुत मुश्‍किल नही है कि पूरे औपनिवेशिक काल में जन-आंदोलनो को किस तरह सरकार प्रशासनिक जद्‍दोजहद के तौर पर देखती रही (हालांकी हमे यह ध्‍यान रखना होगा कि उपनिवेश की सरकार और यूरोपीय सरकार के बीच कई आमूल अंतरें हैं जिन्‍हे पाटना सरलीकृत होगा लेकिन जिनके विस्तार में जाना यहां संभव नहीं है)। दूसरी ओर इसी समुदाय का उपयोग राष्‍ट्रवादी नेतागण सरकार के खिलाफ कर रहे थे और इसमे क्रांति की, आजादी की संभावनाओं को सफलतापूर्वक नियोजित किया जा रहा था। नियोजित इसलिये भी कि महात्‍मा के लिये यह कई अर्थों में आत्‍म का नियोजन भी था जिसके बहुतेरे आयाम ऐसे भी थे जो फूको के उस सरकारी आत्‍म से (जिसका विलय ईकाईयों में हो चुका था) दो-चार हाथ करने को उतावले थे और जिन्‍हे पश्‍चिमी योरप के शासन के खांचे से गांधी बाहर लाना चाहते थे। शायद यह भी एक कारण था कि महात्‍मा किसी भी जन-आंदोलन से पहले स्‍वयंसेवकों की तैयारी पर बहुत बल देते थे। लेकिन यहां यह उल्‍लेख कर देना लाजिमी होगा कि अहिंसा के तमाम आग्रहों और तैयारी के बाबजूद भी कोई भी गांधीवादी आंदोलन हिंसक वारदातों से अछूता नहीं रह पाया। खैर, भारत ने आजादी पायी और शुरू के दिनो से ही भीड़ सरकार के लिये सिरदर्द बना रहा। विभाजन के दौरान की हिंसा में इस भीड़ का योगदान दिल-दहला देने वाला रहा। इसे सांप्रदायिक उन्‍माद कह कर हम क्रांतिकारी सैलाव से दूरी बना सकते हैं लेकिन जल्‍द ही यह स्‍पष्‍ट हो गया कि भीड़ का जो परिचय फूकोवादी सरकारी तंत्र पश्‍चिमी योरप अपना रहा था, नवस्थापित भारतीय लोकतंत्र के लिये भी वही अपरिहार्य हो चला था। 1955 के अगस्‍त में पटना में छात्रों के एक दल से बात करते हुये नेहरू ने साफ किया कि गलत हो या सही, राजनीति के नाम पर प्रदर्शनों में भाग लेना और हुड़दंग (hooliganism) मचाना किसी भी देश के विद्दार्थी के लिये उचित नहीं है। मामला एक घटना का था जब अगस्‍त के महीने में ही पटना के बी. एन कालेज के छात्रों और राज्‍य परिवहन विभाग के कर्मचारियों के बीच के छोटे से तनाब ने पूलिस फायरिंग का रुप ले लिया। जबाब में उस साल के स्‍वतंत्रता दिवस उत्‍सव पर राष्‍ट्रीय झंडे की अवमानना की रपटें आयीं, छात्रों और पूलिस के बीच झरपें हुयीं और छपरा, बिहारसरीफ, डाल्‍टेनगंज तथा नवादा में काले झंडे का प्रदर्शन किया गया।
इस घटना को और नेहरु की प्रतिक्रिया को कई तरह से देखा जा सकता हैं। हिंसा की वारदातें, पूलिस और छात्रों के बीच झरप, झंडे का अपमान आदि के ईर्द-गीर्द भीड़ के राजनीतिक स्‍वरुप और राज्‍य के जवाब का आंकलन किया जा सकता है। लेकिन जो तार यहां से निकल कर दूर तक जाते हैं वह है भीड़ के प्रति राज्‍य का असहज रवैया। अन्‍य कई मौकों पर नेहरु ने सत्‍याग्रह, अनशन और धरने के कुछ ही साल पहले के चिर-परिचित तरीकों से साफ तौर पर अपनी असहमति जतायी। उन्‍होने कहा कि यद्दपि वे यह नही कहते कि कोई कभी भी सत्‍याग्रह न करे। लेकिन दैनिक समस्‍याओं को लेकर, चाहे वह राजनैतिक हो या औधोगिक या श्रमिकों का, अनशन या सत्‍याग्रह जायज नहीं है। एक आजाद राष्‍ट्र जो प्रगति के पथ पर है और जो अब नौसिखिया नही रह गया, उसे नये तरह से काम करना होगा। हमें इन तरीकों को छोड़ना होगा। क्‍या हम देश में गृह युद्द (सिविल वार) छेड़ना चाहते हैं। यह बेतुका है।
बहुत अर्थों में नेहरु की ये पंक्तियां आने वाले दशकों में भीड़ के प्रति या किसी आंदोलन के प्रति एक सशक्त स्‍वर के रुप में काम करती दिखती है। अभी हाल के अन्‍ना हजारे के नेतृत्‍व में हुए जनलोकपाल विधेयक लाओ के बहाने भ्रष्‍टाचार बिरोधी आंदोलन की आलोचना में यह नजरिया बहुत प्रमुखता से मुखरित हुआ।
आगे बढ़ने से पहले यह साफ कर देना जरुरी है कि इस लेख का उद्धेश्‍य जनलोकपाल आंदोलन के गुण-दोष का विवेचन करना कतई नहीं है। न ही लेखक सरकार के रवैये का विश्‍लेषण करना चाहता है। इस लेख में आंदोलन की आलोचनाओं के जरिये भीड़ को देखने के नजरिये की पड़ताल भर की गयी है। यह भीड़ रुदे के फ्रांसीसी क्रांति के भीड़ से बहुत भिन्‍न भी है यह जनता औपनिवेषिक काल के जन-समुदाय से भी अलग है। यहां नयी मीडिया के अनेकानेक माध्‍यम इस भीड़ के बनने और इसकी छवियों के निरुपन में सीधे सीधे सक्रिय रहे। इस तरह जहां एक ओर औपनिवेशिक भीड़ के निर्माण में प्रिंट और मौखिक जगत का बड़ा योगदान रहा सन् 2011 के भीड़ में इलेक्‍ट्रानिक माध्‍यमों (यथा टेलीविजन), इंटरनेट पर नया नया विकसित सामाजिक स्‍थान (यथा फेसबूक और ट्‍वीटर) तथा मोवाइल नेटवर्क ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। लेख के आरंभ में उल्‍लिखित एस. एम.एस ऐसी ही नवीन तकनिकियों का एक उदाहरण है।
इन नवीन तकनीकियों के कारण ही आंदोलन के शुरु में सरकार और आंदोलन के आलोचकों का बड़ा वर्ग यह मानता रहा कि जनलोकपाल आंदोलन के समर्थक महज फेसबूक, ट्‍वीटर, टीवी और एस.एम.एस तक ही सीमित रहेंगें। उनके आंकलन में यह भीड़ एक दिजिटल भीड़ के सिवा कुछ न था। लेकिन वे गलत सिद्द हुये। लोग जुटने लगी, भीड़ सुरसा रुप लेने लगी। ऐसे में इतिहास से वाकिफों के लिये यह सोचना लाजिमी ही था कि यह भीड़ जल्‍द ही हिंसक हो उठेगी और हुड़दंग को नियंत्रित करना जहां आंदोलन के कर्ता-धर्ता को असंभव होगा वहीं यह सरकार के लिये नियंत्रण का और आंदोलन को समाप्त करने का आसान तरीका रह जायेगा। पर यह शायद ही किसी को यकीन रहा हो कि भीड़ ने न मात्र डिजिटल सीमाओं का बड़ी तादाद में उल्‍लंघन किया वरन् इस भीड़ ने इतिहास को झुटलाते हुए स्‍वयं को पूर्णत: अहिंसक बनाये रखा, एक एसा उदाहरण जो महात्‍मा के सपनों में था लेकिन जिसे वे भारत में खुद कभी देख नही सके ( हां दक्षिण अफ्रिका में उन्‍होने कु्‌छ हद तक सफलता जरुर पायी थी)।
भीड़ का अहिंसक बने रहना आलोचकों के लिये परेशानी का सबब था। एक ओर जहां नेहरू की भाषा (जिसमे सत्याग्रह और अनशन को खारिज कर देश की प्रगति का बाधक बनाया गया था) की अनुगुंज सुनायी दे रही थी वहीं आंदोलन को संविधान, प्रजातंत्र और संस्‍थान-विरोधी के रुप में देखा जा रहा था। लेकिन शांतिपूर्ण तरीके से अपनी मांगो के लिये जनता के समर्थन की मांग को गैर-कानूनी या गैर- संविधानिक करार देना मुश्‍किल था। ऐसे में आलोचना का एक वर्ग खासकर बामपंथी बुद्धिजीवियों के बीच भीड़ के अंदेशे को सामने लेकर आया। यहां भीड़ को उसके मध्‍यवर्गीय चरित्र, उसके शहरी होने और सबसे ऊपर उसके संकुचित उद्धेश्यों को लेकर आलोचना का शिकार बनना पड़ा। जाने माने राजनीतिक विश्‍लेषक पार्थ चटर्जी के अनुसार यह भीड़ उन नौजवानो की थी जिसके परिजन उसी भ्रष्‍ट सरकारी तंत्र के हिस्‍से रहें हैं जिनका विरोध आंदोलन में किया जा रहा है।भारत के भ्रष्‍ट लोग रामलीला मैदान के भीड़ के ही रक्त संवंधी हैं। लेकिन यह कहना बेकार है कि यहां कोई आपको ऐसा मिले जिसे यह स्‍वीकार हो। अर्जुन अप्‍पादुरई के शव्‍दों में यह आंदोलन कुछ हद तक एक क्‍लाशिक माश-फासिस्‍ट फैंटेसी है जहां हमारे पैरेड, युद्ध और भाषण नैतिक रहते हैं लेकिन दुश्‍मन के वैसे ही प्रयास राजनैतिक और शैतानी शक्‍ल अख्तियार कर लेते हैं। यह राजनीति के खिलाफ लड़ाई है लेकिन यह जनता के नाम पर और न मात्र राजनीति के बरन् नौकरशाही के खिलाफ भी लड़ा जा रहा है।लेकिन ऐसे में जब हर किसी का दोस्‍त, सगा-संवंधी नौकरशाही का अंग हो तो यह लड़ाई हमारे खुद के भीतर की हो जाती है जिसे उनके खिलाफ पुन: मंचित(re-staged)किया गया है। ये आलोचनाएँ लोकवाद और राजनैतिकता(पोपुलिस्‍ट और पोलिटिकल) के रोचक संवंधों की ओर ले जाते हैं जिनके विषय में अरनेस्‍ट लकलाउ का लेखन सहायक हो सकता है। पोपुलिस्‍ट और पोलिटिकल के अंतर पर बल देते हुये पार्थ चटर्जी लिखते हैं कि पोपुलिस्‍ट आंदोलन महज इसी कारण स्‍वीकृति के अधिकारी नही बन जाते कि उन्‍होने बड़े जन-मानस का जुगाड़ कर लिया है। यह वक्तव्‍य जहां किसी आंदोलन को उसके निहितार्थ, उद्धेश्‍यों के आधार पर परखने की नसीहत देता है वहीं यह प्रश्‍न भी छोड़ता है कि किसी जन-आंदोलन को, जिसने जनता के बीच खासी लोकप्रियता अर्जित की हो उसे किन आधारों पर आलोचित किया जाय। इस विन्दु पर मुझे लगता है कि इन आलोचनाओं का एक अहम हिस्‍सा एक किस्‍म के भय से ग्रस्‍त दिखता है। यह भय है बहुलतावादी राजनीति का। भीड़ के सांप्रदायिक हो जाने का। यह भय है 1960 के दशक के मराठी मानूस से जुड़े आंदोलनो का, 1992 के बाबरी मश्‍जिद के ध्‍वस्‍त होने के बाद के भीड़ का भय। यह वही भय है जो किसी जन-समुदाय को भीड़ में तबदील कर उसे संदेह के घेरे में डाल देती है। यह भीड़ के बे-काबू हो जाने का भय है। यह भय अकारण नहीं है। लेकिन क्‍या कभी कोई भीड़ किसी एक बिचारधारा में बंधी रही है? शाहिद अमीन ने चौरी-चौरा के अध्‍ययन में दिखाया है कि भीड़ और उसके अक्‍श हमेशा अनेकानेक कारकों से बनी होती है। यह किसी भी सरलीकृत तर्क और एकीकृत वैचारिक चौखटे में नही कसा जा सकता है। ऐसे में भीड़ की आलोचना उनके बैचारिक रुझानों के आधार पर करना कहीं भीड़ में अपनी इच्छाओं की तलाश तो नहीं?

(यह निवंध लोकमत समाचार के दीपभव में 2011 प्रकाशित हो चुका है)।