Tuesday, December 08, 2015

Delhi 2033: दस्ताने दिल्ली

सौ साल की दिल्ली/ Delhi 2033

2033 ईo. राजस्थान में राष्ट्रीय राजमार्ग से बीस कि.मी. दक्षिण रात के सवा दो बजे उन दोनो की सांसे बहुत तेज चल रही थी. फिर, उस ऐसी टेंट में सन्नाटा पसर गया. दोनो ही को गहरी नींद ने अपने आगोश में ले लिया. यह सौ सवा सौ किमी का टुकड़ा जो कभी निरापद और विरान हुआ करता था जहां हिन्दी सिनेमा रोड मूवी और हॉरर मूवी की प्लॉट तलाशते कभी आया करती  वह पिछले पांच सालों से ऐसे अनगिनत ऐसी तंबूओं और उनमें निढाल हुए इंजीनियरों, प्लानरों, ऑर्किटेक्ट, ब्यूरोक्रेट और खुबसुरत मर्दाने सेफ से अटा पड़ा है.
निशा अभी अभी तो मसूरी से निकली है और सीधे पीएमओ से उसे यहां भेज दिया गया, स्पेशल असाइनमेंट पर. निशीथ अभी अभी तो स्वीटजरलेंड से हॉटल मेनेजमेंट का कोर्स कर लौटा और लीला ग्रूप ने अपने सेटअप की जिम्मेदारी देते हुए यहां भेज दिया. दस साल में कितना कुछ बदल जाता है. पिछली बार, शारदापुर में छोटकी पीसिया के बहिनोइत की शादी में एक छण देखा किया था. हॉय हेलो ह होकर रह गया था. नंबर और इमेल एकसेंज भी नहीं कर पाया. कई दफे फेसबूक पेज पर जाकर भी फ्रैंड रिक्वेस्ट नहीं भेज पाया. आखिर दूसरे तरफ से भी तो पहल हो सकता था. पहल करने के मामले में निशी भी पुराने ख्याल की ही थी. कोल्ड फीट डेवलप कर लेती. और, उस भागम भाग माहौल में दोनो के पास कुछ बचा रह गया तो महज एक जोड़ी नाम और दो जोड़ी ऑंखें.
और, आज वही नाम, वही आँखे एक दूसरे से मिल गये. और अब सब कुछ शांत.
टेंट में आई पेड पर बहुत हल्के वॉल्युम में अमजद अली का सरोद बजता रहा. निशी की यह अजीब सी आदत जो ठहरी जहां जाती उसके ठीक उलट संगीत ले जाती. पहाड़ो पर डेजर्ट साउंडस्केप के साथ धुमती और रेगिस्तान में कश्मीर को तलाशा करती. जल तरंग और सरोद.
टेंट कुछ ऊंचाई पर था. इंजिनियरों और आर्किटेकटों से भी थोड़ा हटकर. सामने नीचे सौ सवा सौ किमी का नजारा. नियॉन रोशनी में नहाई रात अब तनहा तो न थी. सामने जहां तक नजर जाती रोशनी ही रोशनी. दैत्याकार मशीन, सिमेंट, लोहे, प्री फेवरिकेटड स्लैव, क्रेन, और असंख्य चीनी और बिहारी मजदूर. उधर, दूर इन मजदूरों की बस्ती से आती बिरहा सरोद की धुन में मिल गयी थी.
एक सौ साल पहले कुछ ऐसा ही तो मंजर रहा होगा जब दिल्ली की रायसीना की पहाड़ियां सज कर तैयार हुई होंगी. समय बदला, लोग बदले, तकनीकि बदला. वही दिल्ली रहने लायक न रही. हवा और पानी भला जात पॉत पैसा ओहदा माने. पहले पहले तो गरीब गुरबे अस्पताल जाते मिले. नेता, अफसर और प्रोफेसर निश्चिंत सोते रहे. पर, जब हवा ही जहरीली हो तो किसकी सुने. फिर, मीटिंग बुलाया गया. रातो रात अफ्सरों को जगाया गया. सबसे कनजरवेटिव अफसरों और सबसे रैडिकल प्लानरों को सुबह पौने सात बजे तक हॉल में आ जाना था. डिफेंस, रियल स्टेट, पार्यावरण साइंटिस्ट, मिट्टी के जानकार, पानी के एक्सपर्ट, मरीन बॉयोलोजिस्ट सभी को लाने का जिम्मा अलग अलग सौंप दिया गया था. उधोग पतियों और मीडिया हॉउस के पॉंइंट मेन को अपने दरबाजे पर पौने पॉंच बजे तैयार खड़ा रहना था जहां से उन्हे सबसे नजदीकि सैन्य हवाई अड्डे तक रोड से या हेलीकॉप्टर से ले जाने का प्रबंध कर दिया गया था. यहां तक कि ट्रेफिक कमिशनरों को ईत्तिला दे दी गयी थी कि अपने महकमे के सबसे चुस्त अधिकारियों के साथ वे ऐसे खास ऐडरेसेज और हेलीपैड या एयर वेस के बीच के यातायात पर खुद निगरानी रखें. पर, किसी और से इसका जिक्र न करने की सख्त हिदायत भी साथ ही दिया गया था. पौने सात बजने से ढ़ाई मीनट पहले उस विशालकाय मीटिंग हॉल की सभी मेज पर हर कुर्सी भर चुकी थी. सभी के सामने एक और मात्र एक सफेद कागज का टुकड़ा और एक कलम रखा था. पीरियड. लेकिन एक ही पेज क्यों, लेटर पैड क्यों नहीं? नजरें और चेहरे खाली कुर्सी पर टिकी थी जो उस हैक्सागोनल हॉल के किसी भी कोने से साफ दिखता था. और, जिस कुर्सी से उस हॉल की हर कुर्सी पर बैठे आंखो की रंगत को पहचाना जा सकता था. यह एक अदभुत मीटिंग था. आज देश की सबसे बिकट समस्या का हल ढुढ़ना था. हवा के बारे में बातें करनी थी, जो बिगड़ चुकी थी. आज राजधानी को बदलने की योजना तय होनी थी. आज निशा, निशीथ और उनके जैसे असंख्य की जिंदगी की दिशा तय होनी थी. आज ही के मीटिंग में सरोद को रेगिस्तान की जमीन पर बिरहा से मिलन को तय होना था. आज ही तो तय होना था कि निशीथ की पीठ पर दायें से थोड़ा हटकर नाखुन की एक ईबारत हमेशा के लिये रह जाएंगी. एक खुरदरे टीस की तरह...