Friday, May 25, 2012

"Why is she wearing blue?"
"Ahhh, may be she's going to meet her boyfriend. Blue is the colour of love. You see blue, it has its own smell, it even has a sound! It can be cool or hot--just like Love." from "Indigo: In Search of the Colour that Seduced the World" by Catherine McKinley
...a seductive reading in the spirit of its title.
"It's a saying. You see, the thing you desire with all your heart---well, don't rush for it. Don't force. You will likely find that it is not the very thing you are looking for." (from the same book).

Wednesday, May 23, 2012

आज भी फेसबुक पर उसने लाईक बटन नहीं दबाया. अब तो उम्मीद भी छुट गयी. यह सोचते जैसे ही दरभंगा के राम चौक पर छज्जू हलवाई के दूकान पर गरमा गरम सिंघारे और इमरती के दोने से अपनी आँख उठाई कि ठीक सामने उसकी वही आंखें थी. बातूनी नजर, दोष देती, झगडा करती, नोक झोंक से लब डब, अशांत, अबूझ, अनंत और अद्भुत.दुनिया की सारी मासूमियत को समेटे. बगल के पान के दूकान पर भांग के गोलों से भरी स्टील की चमचमाती ट्रे के साथ रखे रेडियो पर 'गाम घर' में खुरखुर भाई की आवाज खनक रही थी " एं येई चानो दाई हमरा ई कहू जे अहाँ कहियो फेसबुक ईमेल देखलियई की अखैन तक गोईठे पैथ रहल छी". चानो दाई छुटिते ठाई पर ठाई दग्लीह: "अहाँ के की लागैयेह जे इन्टरनेट खाली पुरुख'क बपौती छियैक. हम त ट्विटर आ माइक्रो- ब्लॉग्गिंग सेहो करैत छी, फेसबुक आ ईमेल त आब तनकपुर वाली सेहो करैत छथि. हँ..." मुहँ में फंसे सिंघारा को किसी तरह गले के अन्दर ठूंसते आँखों ने बस यही पूछा--लेकिन क्यों तुमने अचानक यह सिलसिला क्यों बंद, क्या मजबूरी, एक बार कह कर तो... उसके ओंठ हिले, "मेरा सारा का सारा एकाउंट हेक हो गया है. आई कांट एक्सेस एनी थिंग".
( रवीश और गिरीन्द्र से प्रेरित)

Tuesday, May 15, 2012

राजनैतिक कार्टून लोकतंत्र की एक कविता है

किसी भी अन्य राजनैतिक इकाई कि तरह दलितों का यह हक़ बनता है कि वे उस बात का बिरोध करें जिससे उनकी सामूहिक मानसिकता पर चोट पहुंची हो. यहाँ यह भी जोड़ देना लाजिमी हो जाता है कि दलित को या अल्प-संख्यक को किसी भी अन्य सामूहिकता के रूप में समझना भी भारतीय समाज और राजनीति को सरलीकृत करना होगा. भारतीय प्रजातंत्र में, इसके विकास में व्यक्ति और समुदाय का वही स्थान नहीं है जिस तरह वे पाश्चात्य प्रजातांत्रिक मूल्यों और संस्थाओं में है. यहाँ दलितों को व्यक्ति और समुदाय के रूप में अपनी पहचान बनाने में समय लगा है. इसके लिए जूझना पडा है. सैद्धान्तिक समता के वादे के बाबजूद, यहाँ कि धरती पर हर कोई समान नहीं है. इतिहास ने और वर्ण व्यवस्था ने हर किसी को समान अतीत नहीं दिया, न ही सपने दिखने के लिए वर्तमान कि समतल जमीन. ऐसे में रास्ट्र के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह दलितों का अल्प संख्यक का उनके मान का ख्याल रखे. यदि चंद बड़े वाकिया को नजर अंदाज कर दें तो कमो-वेश भारतीय रास्ट्र राज्य अपनी ऐसे छवि पेश करने में सफल होता नजर भी आता है जहां वह दलितों और अल्प संख्यक के रक्षक कि भूमिका में आये.
यह छवि भ्रामक है या सत्य यह मेरे ज्ञान के बाहर कि बात है. लेकिन यह छवि मन मोहक है, मध्य वर्ग के लिए, भद्र लोक के लिए. और, यही सरकार के लिए, लीडरानो के लिए इक्छित भी है. उनके सहूलियत के लिए, सरकार चलाने कि सहूलियतों के लिए. व्यंग इसमें मारक साबित होता है.
यह दो-धारी तलवार नहीं है. यह कुछ ऐसा अनाम हथियार है जो अलग अलग दिशाओं में आघात करता है. इसके अर्थ अक्सर ही दिशा हीन हुए बिना ही अनेक तरफ से मार करते हैं. व्यंग कि मार बहुत घातक होती है. कई दफे तो बे-आवाज होती है. शायद यह कारण भी व्यंग जातियों पर नियंत्रण रखने का एक पुराना और असरदार तरीका रहा है भारत में. अनेकों निचली जातियों और सामजिक पायदान पर नीचे के वर्गों के लिए तरह तरह के जातीय पहेलियाँ और दोहे रहे हैं जिनमें उन्हें नीचा दिखाया जाता रहा है, व्यंग के माध्यम से. यहाँ उनपर विस्तार से जाना अवांछित होगा लेकिन जो इतिहास जानते हैं और भारत में जातियों पर हुए काम से, लोक मुहावरों से जुड़े दस्तावेजों से वाकीफ हैं उनके लिए यह कोइ नयी बात नहीं. व्यंग में सामजिक वर्ग को मुर्ख के रूप में, हंसी के पात्र कि भूमिका में दिखाए जाने का रिवाज आज भी जम कर प्रचालन में है. आधुनिकता और नगरीकरण के दौर में  इनमें से अधिकतर माइग्रेंट समुदायों पर होता है सरदार के उपर, बिहारी के ऊपर. शहर में गाँव से आये हुए के ऊपर और गाँव में शहर से आये हुए लाट साहब के ऊपर.
भारतीय समाज में व्यंग कि राजनीति को समझने के लिए यह सामाजिक पृष्ठभूमि मानीखेज हो जाता है. बिना इस ओर गौर किये हम दलितों के उस बिरोध को नहीं समझ सकते हैं जिसके कारण सरकार को यह एलान करना पडा कि वह एन सी ई आर टी पाठ्य पुस्तक से शंकर के बनाए एक ख़ास कार्टून को हटा दे. इसी सामाजीक पृष्ठभूमि के कारण मैं उनसे भी सहमत नहीं जो इस पुरे प्रकरण को चुनावी राजनीति और संख्याओं के जोड़-तोड़ का हिस्सा भर देखते हैं जहां दलित महज संख्या भर हैं और कांग्रेस का मायावती के रुख पर प्रतिक्रया देना चुनावी गणित भर.
राजनीति के दाँव-पेंच और पार्लियामेंट में सत्ता पक्ष के जबाव के पीछे झांकती लाचारगी और दलित समाज को खुश करने के सच्चे इरादे जैसे तर्कों से बाहर निकलने में व्यंग का यह सामजिक पक्ष हमे मदद करता है. यह हमे उस तरफ ले जाता है जहां से हम देख सकते हैं कि दलित जो सदैब ही उपेक्छित रहे हैं उन्हें अपने सबसे बड़े नेता का कार्टून में परिवर्तन क्यों कर नागवार गुजरा.
लेकिन सवाल महज इस एकलौती घटना का नहीं है. सवाल यह भी नहीं कि शंकर के उक्त कार्टून का अर्थ वही है या नहीं जिसे २०१२ में दलित बिचारक या राजनेता लगा रहे हैं. आखिर कौन तय करेगा कि कार्टून का अर्थ क्या हो? एक बड़े प्रख्यात विश्लेषक ने चित्र को देखते हुए सवाल किया था कि 'चित्र क्या चाहती है?' तो यह कौन कहेगा कि फलां कार्टून क्या चाहता है? यदि इस सवाल को अनंत काल तक टाल  भी दें तो भी यह तो दिखता ही है कि हाल कि यह घटना कोई असम्पृक्त उदहारण तो है नहीं. कुछ ही दिन पहले ममता बनर्जी इसी तरह आहत हुई थी और एक प्रोफेस्सर के बिरुद्ध कार्रवाही कि खबर मीडिया में विचरती रही. उससे थोड़े पहले कि बात है जब नरेन्द्र मोदी के कार्टून के कारण एक और कार्टूनिस्ट को मुश्किलों का सामना करना पडा था. यदि चंद बरस पीछे जाएँ तो मोहम्मद साहेब के कार्टून के कारण बहुत बबाल खडा हुआ था. ये सभी अलहदा से लगने वाले राजनैतिक चौखटों से आने वाले प्रकरण हैं. यदि कुछ जोड़ता है तो वह है कार्टून के प्रति बढती असहिष्णुता.
यह आज के समय में राजनीति के प्रकृति कि तरफ भी हमे ले जाता है जहां पवित्रता के नए मानक गढ़े जा रहे हैं. जहां एक ओर आज गणेश और बाल हनुमान अपने अनगिनत कार्टून छवियों में बच्चों के दोस्त बन चुके हैं वहीं एक भी राजनैतिक का हमारे जीबन से मनो-विनोद का नाता नहीं है. चाचा नेहरु भी तो बहुत अरसे से बच्चों के चाचा नहीं रहे. राजनीति में पवित्रता को लेकर एक भय का माहौल है, एक किस्म कि कमजोरी जाहिर करता या फिर उन्माद का रवैया. यह सहज तो बिलकुल ही नहीं. अबोध होने का तो खैर सवाल ही नहीं उठता.   
एक समाज विज्ञानी ने कहा है कि हम ऐसे समय में रह रहे हैं जिसे समाज विज्ञानं का 'पिक्टोरिअल टर्न' कहा जा सकता है. हमारे दैनिक जीवन में दृश्य की, चित्र की भागेदारी असीम रूप से बढ़ चुकी है और इसी सन्दर्भ में उन्होंने समाज विज्ञान के समकालीन रुझान कि ओर हमारा ध्यान दिलाया. यहाँ गौर तलब हो कि सत्तर का दशक समाज विज्ञानं के भाषी रुझान के लिए जाना जाता है.
खैर जो भी हो, एक बात तो यह साफ़ उभर कर आती है कि दृश्य के संभाव्य को लेकर हमारे विद्वान् इतने लापरवाह क्यों कर हो गए. या फिर इस संभाव्य को महज बढ़ा चढ़ाकर पेश किया गया है. लेकिन यहाँ यह ध्यान रखना होगा कि व्यंग और कार्टून हमेशा ही अर्थों के बाहुल्य से परिभाषित होता है. तो ऐसे में इस बाहुल्यता का कोई कितने हद तक अंदाज लगा सकता है. राज्य और सरकार के लिए यह एक दुसरे तरह कि चुनौतियां लाता है. विद्वानों ने बताया है कि आधुनिक राज्य और विज्ञान दोनों एक दुसरे पर निर्भर होते हैं. दोनों के लिए जानकारियों की, ज्ञान की, अर्थों की साफगोई, एकरूपता, सर्व-भौमिकता और परि गुनन्ता ( क्वान्तिफिकेसन) जरूरी है. इसके बिना आधुनिक प्रशासन, राज्य-निति नहीं चल सकती. तो ऐसे में जब कार्टून वांग का ऐसा रूप लेकर आता है जिसको नियंत्रित नहीं किया जा सके तो जाहिर है वह सत्ता को विचलित तो करेगा ही. दृश्य के जादू से पूरी तरह अवगत इस वर्ग के लिये कार्टून व्यंग और चित्र का ऐसा अनोखा नुकशा बनकर आता है जिसका इलाज उन्हें एक मात्र सेन्सर शिप और कार्टूनकारों पर डंडे बरसाने में नजर आता है. वे यह नहीं समझते कि राजनैतिक कार्टून लोकतंत्र की एक कविता है. जिसतरह कविता में अनुभव का वह हिस्सा भी शेष रह जाता है जिसे विज्ञानं छटपटाते रह जाने के बाबजूद भी ज्ञान में प्रवर्तित नहीं कर पाता. उसी तरह कार्टून वह चित्र है जहां व्यंग को सत्ता और सरकार भिन्नता की (डिसेंट की) जानकारी के रूप में सरलीकृत नहीं कर सकते. यह गवर्नेंस के तर्कों से परे जाता है. अपने अर्थों के बाहुलता में अपने डिसेंट के धार दार औजार  के कारण लोकतंत्र के समृद्धि कि पहचान है कार्टून.