Tuesday, April 15, 2008

waiting women: 01


Stickers significantly shape urban visual landscapes. They are in front of our eyes: on the back of an auto-rickshaw, inside it ahead of driver's looking glass, on street dividers, on the mirror of street barbers, on tea shops. Themes depicted in these stickers encompass a wide range of cultural and political events, vocabulary and processes: from Kargil war to explicit sexual couplets. The form of these stickers is often standard and these are produced with digital printing tools suggesting its mass production, an organised economy of production and marketing and a consumer base. This image is part of my "waiting women series" purchased from Delhi ( Rs. 3) from a retail seller. Here the caption is "when would you return home".

Friday, April 11, 2008

The building behind I P Mission School, Surat


An old building speaks a volume of the history, inharits the romance of the past and stands as a witness in the dock of the contemporary.

an obara behind I P Mission school, Surat



Few days back, we had a long conversation with Kazmi couples. We wanted to interview someone who knows this city and has lived here for a long time. We were told to contact Kazmi's and the couple not only agreed to talk but insisted that they would visit us in the Centre for Social studies, the place where I work.
During this conversation he suggested us( me and Prof. Das) to see Obara near I P Mission school. He thought that this might be the place to board ships for the Haz to Mecca and Madina. Surat was know as "Babul Macca", the gateway to Mecca.
It is too early to conclude the equation between this obara and the Haz pilgrimage. But, this bylane was full of history. Just behind IP Mission school, this narrow lane takes you to the river front of Tapi. There are old buildings, dilapidated and empty with court scriptures written on their old wooden doors.
On the river front the only functional building you find (apart from stray converted residential houses) is a Hanuman temple. The walls providing a frame to this riverfront and the entry gate all look like quite an old structures.
However, what caught my attention most was this old marble tablet dating back to 1934 informing us that a Parsee gentleman transferred this property to Surat Municipality. The warning comes alongwith this declaration prohibiting domestic animals' movement around this place.
Written in Gujarati, this begins with 'Shree' (a hindu religious marker) follows with 'Pak' and 'Ahurmajda' representing Islamic and Parsi traditions of writing. Is this a layered tablet along religious cum communitarian lines or is this a layered past that comes in this form of a marble tablet. There were other three longer tablets on the walls of the locked house. But the camera quality did not allow legible snaps of them. Probably next time.
I want to know the place, this lane, their inhabitants but also like to know more on the word 'obara' or 'obaro'.

Wednesday, April 09, 2008

अपने अलबम से

लाश आधी से अधिक जल चुकी थी और अंधेरा छंटने लगा था. सुबह होने में अभी कुछ देर और थी. जब मैंने उन दोनों को नदी के तरफ से आते देखा तब एक स्नैप बनकर रह गया. वह दृश्य एक जलती हुई लाश से उठती आग की लपटें, पीछे बहती हुई बूढी-सी बागमती जिसे हमलोग उन दिनों अपने हॉफ-पैंट भिगाए हुए ही पारकर जाते थे, नदी के पार पके हुए धान के खेतों की कतार और बांयी ओर से चढान चढते हुए दो स्त्री आकृतियां - एक छोटी एक बडी अौर लंबी चाल में एक प्रकार की सुस्ती जो कुछ तो भोरूकवे की अलसायी प्रकृति के कारण थी और कुछ इस बात की गवाह थी कि दूरियां तय करने के बाद उनकी टांगें थक चुकी थी.
और भी अनेक रूपों में मैं इस स्नैप को पढता रहा हू/ स्मृति के आईने में. इस फोटो के बिम्बों ने मेरे अकेलेपन का इतना अधिक संग निभाया है कि मैं इसकी व्याख्या कर सकने में अक्षम हू/. हर बार कुछ नए शब्दों के साथ, एक नए नजरिए से. पर यहां आपके लिए यह फोटो एक शुरूआत मात्र है. कहानी को आगे जाना होगा. जिंदगी को बहते जाना होगा.
मेरा ईत्ती से परिचय मारियाना के ही कारण हुआ. उस फोटो के बाद शायद इसी रूप में बात आगे बढायी जा सकती है.उस सुबह के बाद मैं रोज सवेरे श्मशान के काली मंदिर के चबूतरे पर बैठ उन दोनों के आने का इंतजार करता. वो आती, मेरे तरफ बडी क़ौतूहल से देखती और फिर चली जाती. तीन चार दिन ही गुजरे होंगे कि एक सुबह जब मेरी आंखें बेसब्री से उनके आने के रास्ते पर केन्द्रित थी पीछे से एक बडी सुरीली अंग्रेजों के से उच्चारण में एक आवाज और एक निश्छल हंसी सुनायी पडी, 'अो वीग
मैन व्हाट आर यू डूईंग हियर?' उसका नाम था मरियाना. मुझे रंगे हाथों पकड लिया गया था. इसी पकडे ज़ाने का उत्सव था ईत्ती की हंसी. अपने बांये हाथ के चार उंगलियों से मुंह को ढांपे अपनी हंसी को छुपाने की नाकाम कोशिश करती हुई ईत्ती इस नाकामयाबी के कारण मानो शरीर का सारा खून उसके चेहरे पर आकर जमा हो गया हो.मोर की स्वच्छता, नदी के तरफ से आने वाली तेज हवा का झोंका और एक हाथ से मुंह को ढंकते हुए दूसरे हाथों से चेहरे पर फैल आई बालों को पीछे करती मुझे एकटक देखती हुई ईत्ती. न रूकने वाली हंसी हंसती हुई एक लडक़ी. मैंने बाद में ईत्ती को कहा भी था कि मैंने उसकी वह हंसी फिर कभी नहीं सुनी.
मारियाना की हंसी एकदम से अलग सी थी. उसकी हंसी को एकदम से पा लेने को मन आतुर हो उठता था. वह शायद हंसना जानती थी. ईत्ती की हंसी में स्वयं ही समा जाने की, हो जाने की उत्कट आकांक्षा हुआ करती थी. मानो उसी हंसी में खुद को पाने की इच्छा बलवती हो उठती हो.
ईत्ती मारियाना के मकान मालिक की लडक़ी थी. मारियाना, उस साल 13 अप्रैल को उसने एक हिदायत के साथ हंसते हुए अपनी उम्र 26 साल बतायी थी. उसी दिन मैंने पहली बार जाना था कि लडक़ी से उम्र पूछना असभ्यता की निशानी है. मारियाना, जिसका शुध्द-शुध्द उच्चारण शायद ही मैंने कभी किया हो, एक फ्रांसीसी उपन्यास लेखिका थी. भारतीय श्मशान की पृष्ठभूमि में एक प्यार की कहानी लिखने आई थी. उसके साथ आया था - रोजर, उसका बॉयफ्रैंड. मैंने उन्हें देखकर ही सीखा था कि स्त्री-पुरूष बगैर शादी किए भी साथ-साथ एक कमरे में रह सकतेहैं. उसी कमरे में शांत दोपहरों को मैंने बहुत से अनसुलझे रहस्यों को हल होते देखा था. मारियाना को मैंने अपने और ईत्ती के सामने ही कई बार बेझिझक कपडे बदलते हुए देखा था और इस दौरान मैं शुरू में चुपके से, कनखियों से और फिर बाद में बेधडक़ ईत्ती को देखा करता था.
रोजर स्वाभाविक रूप से मेरे लिए कवाब में हड्डी था. एक नृशास्त्री (एंर्थोपालोजिस्ट) जो भारत में मृत्यु संस्कारों और श्मशान की संस्कृति का अध्ययन करने आया था. मारियाना ने मुझे बताया था कि उनमें कोई प्यार का चक्कर नहीं है और काम की समान प्रकृति ने ही दोनों को निकट कर रखा था.इतना सब कह चुकने के बाद वह एक शब्द और जोड देती, उसका तकियाकलाम - 'अंडरस्टेंड' (समझे बुध्दु कहीं के). मानो वह कुछ समझता ही न हो. मानो सारा ज्ञान और सारी होशियारी गोरी चमडी में ही हो.मुझे मारियाना के इस शब्द से नफरत सी थी पर जिस अंदाज से वह 'अंडरस्टेंड' कहती और अपनी पतली पतली लंबी उंगलियों से उसके बालों को छितराकर रखदेती, मैं अदा का दीवाना सा हो गया. नफरत करने के बाद भी मैं इंतजार करता कि कब मारियाना की लंबी बातें खत्म होंगी, कभी न खत्म होने बाली बातें, और कब एक गहरे सांस लेकर व जल्दी से बोलेगी, अंडरस्टेंड. और फिर उसके बाल
मुझे बडा अजीब सा जीव लगा था रोजर. बहुत छोटी-छोटी और अत्यंत सामान्य से प्रतीत होते क्षणों और बेकार के चीजों को अजीब सी नजरों से देखा करता वह. ऐसा लगता मानो उस श्मशान के दीवार के पास दूर तक फैले चीटियों के घरौंदो से कोई जीन निकल आए. यदि एक वाक्य में कहा जाय तो रोजर बुध्दिजीवी बनने का नाटक करने भारत और दरभंगा आया था. मुझे विशेषत: उसके वाहियात से लगने बाली बातों से नफरत थी. इन बातों को वह बडे भारी भरकम अंदाज में पेश किया करता. यूं तो वह मुझसे कम ही बातें करता था पर उस दिन पता नहीं कौन-सा भूत उस पर सवार हो गया था. मुझे बैठाकर जीवन के रहस्यों को उद्धाटित करता हुआ बोला - जानते हो जिंदगी एक किताब की तरह होती है - Life is like a text, Culture can be read as a text too. फिर एक लंबा मौन. मुझे इस लंबे मौन से बेहद चिढ थी. लंबे मौन के बाद रोजर को सहसा मेरे कुपात्र होने का एहसास हुआ. Just leave it You won't understand... तुम समझ नहीं पाओगे अभी.
पता नहीं क्या समझता था मुझे - एक छोटा बच्चा. और फिर ऐसा क्या दर्शन था इस वाक्य में. मैंने भी तुरंत कह दिया कि उसके ब्रह्म वाक्य में ऐसा कुछ नहीं है जिसे मैं न जानता होऊं यह तो बच्चा-बच्चा जानता है कि जीवन एक किताब के समान होता है जिसे कहीं से किसी भी रूप में पढा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है और वह हंसने लगता था. मानो मेरा, मेरे उम्र का और मेरे ज्ञान का मजाक उडा रहा हो. फिर अचानक से गंभीर होकर एक जिज्ञासु छात्र के रूप में उसने मुझसे पूछा - ये ब्रह्म वाक्य क्या होता है? और मैं उसका गुरू बन बैठा.
रोजर की हंसी ने मेरे दार्शनिक मन को विद्रोह से परिपूर्ण कर दिया था. उसकी हंसी को मैंने चुनौती के रूप में अपनाया और अगले ही दिन घाट के सीढियों के कोने में दुबके-दुबके मैंने अपनीग्यारहवीं कविता पूरी की - जीवन और पाठ को समर्पित.
जब कविता पूरा कर सर उठया तो अहसास हुआ कि किसी की आंखे बहुत देर से मेरी कविता को पढ रही है. यह और बात है कि न तो उन दिनों में ही और उन दिनों को याद करते हुए न ही आज भी मुझे इस बात में रत्ती भर भी शक नहीं है कि वे आंखें मेरी कविता से अधिक मुझे पढ रही थी. ईत्ती मेरे ठीक पीछे खडी थी और मैंने पूर्णता के साथ उसे चूम लिया था. एक निश्चिंत और प्रगाढ अौर प्रथम.
पर यह चुंबन रोजर और मारियाना के चुंबनों से सर्वथा भिन्न था. मैंने शांत दोपहरों में दोपहरों में जंगले के पीछे से उन दोनों को चूमते हुए कई बार देखा था. वे ओठों पर चूमते थे. पर मेरे लिए ईत्ती के गाल अधिक पवित्र थे. उसके गोरे चेहरे पर कब सिंदूरी आभा आती और कैसे उसके गाल लाल हो उठते यह मेरे लिए रहस्य ही बना रहा .मैंने अपनी एक कविता में उसके गालों के लिए सेमल के फूल की लालिमा की उपमा दी थी.ये और बात थी कि उन दिनों की यही एकमात्र कविता कभी पूरी नहीं हो पायी.
खैर, उस दिन छाया लंबी होती गई पर लम्हें मानो थमे रहे. रक्त रंजित कपोल पर छोटे-छोटे दो गङ्ढे. अपनी उष्णता से मैंने उन गङ्ढाें को परिपूर्ण कर देना चाहा था. शेष एक स्मृति जिसे शब्दबध्द करना मानो अपने अतीत का त्याग करना.शब्दों में बयान कर देने के बाद स्मृति निज नहीं रह जाती. और मैं अपना यह हकछोडना नहीं चाहता.
ऐसी थी ईत्ती और अब रह गया है कुछ बिखरे से चित्र - एक चेहरा जिसे निरूपित करने में बार-बार अपने को अक्षम पाता हूं. पंद्रह-सोलह साल की उम्र जिसकी कसक आजतक अपने में पाता हूं. उसके लंबे पैर और सफाई से कटी हुई नाखून जिससे मुझे हमेशा अपनी गंदगी का अहसास होता रहा और इन सारी छाया, प्रतिच्छाया के ऊपर कहीं बहुत भीतर तक समाया हुआ अहसास एक गंध उन दिनों की. एक गंध उन दो शरीरों की. ईत्ती और मारियाना.
एक फोटो है आज भी मेरे पास.और उस फोटो में ईत्ती है और मारियाना है.उस फोटो में मैं नहीं हूं पर वह मेरी फोटो है. मैंने उसे चुराया था रोजर के डेस्क से. रोजर को उस फोटो को रखने का कोई अधिकार नहीं था. मारियाना से मैंने कहा था अपनी इस चोरी के संबंध में. और एक दिन उसने मुझसे बडे शांत और स्थिर आवाज में कहा कि रोजर को पता था कि वह फोटो मेरे पास है और मैंने उस फोटो को फाडक़र उसके हजारों टुकडे क़र बागमती में बहा दिया था. ईत्ती मेरे पीछे खडी होकर उन टुकडाें को देखती रही और फिर उसके आंखों में आंसू आ गए. ईत्ती जानती थी कि मेरे पास उसका यह एकमात्र फोटो था. मैंने उसे समझाने की बहुत कोशिश की थी कि टुकडाें में बह जाने से फोटो नहीं खत्म हो जाते. मैंने उससे ठीक-ठीक यही कहा था कि मेरे पास यह फोटो सदैव सुरक्षित रहेगा. इस कागज के फोटो का अंत होना जरूरी हो गया था. रोजर को पता था कि मैंने फोटो चुराए थे. रोजर जानता था कि मैं इस फोटो को देख रहा हूं.इस फोटो में ईत्ती थी और मारियाना थी. मैं इन दोनों को देखते हुए था और मुझे देखते हुए रोजर था और रोजर की आंखों से पीछा छुडाता, भागता हुआ फिर से मैं ही था और मुझको भागते देखते, कायर और अपराधी घोषित करती ईत्ती की अश्रुपूरित आंखें थी और सब देखते हुए, भोगते हुए मैं हूं. निपट अकेला मैं. अपने ही अनुगूंजों में उलझा हुआ. स्वयं को पीछे धकेलते, स्वयं से पीछा छुडाता मैं.
I wrote this story long back for my hostel magazine( Mansarowar Hostel, Delhi University). This was also published in "Mandal Vichar" a journal for social and cultural change from Madhepura, Bihar(now it has an online site too ).

Friday, April 04, 2008

a trbial sacred symbol from Dang, Gujarat.


While driving down from Saputara for Surat, I clicked this image. Saputara is a beautiful place though heading towards rapid commercialisation. This is a mid way between Surat and Shirdi. Located on the hilltop in the second largest tribal district of the country, Dang, this is the only mountainous holiday spot in the south Gujarat. It is around 160 km from Surat and has some descent stay options for the tourists. You get freshly plucked strawberries that women sell there very cheap. The other side of the mountain falls in Maharashtra and famous for grape cultivation, vineyards. Nashik is around 90 kms from Saputara.

Thursday, April 03, 2008

locked letters: writing on the street with a chain and a lock


I came to Surat for the first time to appear in an interview. This is was for the post of assistant professor at the Centre for the Social Studies in late 2006. In Delhi, it was winter season. In Surat, there was no cold and I enjoyed a lot. I had lot of time at my disposal that I used to walk in the city. During one of those walks I saw these letters written densly on the walls, on the street divider and spread almost everywhere.
After a long gap, today morning I captured some of the images and one is posted here. This is on the road that connects Bhatar chaar-rashta to Majura Gate, Surat.

Wednesday, April 02, 2008

ignorant city


For sometime, I have been fascinated by writings in the city. These writings I find on the walls, on public notice boards, the shade of the bus stop, on school desks, on the toilet walls of public utility rooms, in trains, on the back of the seat in public bus... They are everywhere. City appears as a slate, a writing pad meant for these writings. This image is of a wall on the Rajpur Road,Delhi. Right next to this wall is a school and students have used the wall to give shape their creativity.