यह उन दिनों की बात है जब लाइब्रेरी स्पेशल चला करता था. दिल्ली विश्वविद्यालय से दोपहर बाद खुलता था और सभी प्रमुख लाइब्रेरी एवं आर्काइब भी जाया करता. इसी लाइब्रेरी
स्पेशल में पहले पहल देखा किया उसे. डी स्कूल के स्टाप पर बस में आयी वह. गहरे कत्थई दुपट्टे और बहुत हल्के क्रीम कलर की सूती सूट. सूट का रंग कुछ यूं कि किसी बहुत बड़े दुध के थार में एक चुटकी भर चंपई मिला दिया गया हो.
ये मेरा उस बस में पहला दिन था. ये मेरा तीन मुर्ती का भी पहला दिन था. अब तक यह सोचा करता हूं कि यह महज संयोग तो न था कि तीन मुर्ती के गेट पर उतरने बाले उस दिन महज हम दोनों ही थे. पहल उसने ही की थी, शायद तकाजे के लिये ही. एक बेहद संतुलित मुस्कान के साथ जो उस खाली बर्तन की तरह जिसमें चाहे आप जितनी कल्पना, जितने सपने भर दें, वह कभी लवरेज नहीं हो.एक ऐसी ही आत्मीय मुस्कान. तीन मुर्ती के विशालकाय एतिहासिकता की ताकीद कराता गेट, उसके अंदर जतन से संवारा गया उतना ही विशाल लॉन और उसके पीछे, नजर के दूसरे छोड़ पर एक भब्य इमारत. नेहरू जी का घर.
मैं मुस्कान को जेहन में लपेटे अपनी संकुचाहट के साथ उसके पीछे हो लिया. मुझे ठीक ठीक याद है वह उस दिन चॉंद का फांसी अंक देख रही थी, पहले फ्लोर पर माइक्रोफिल्म रीडर पर. मैं चुपचाप उत्सुकता से उसे देख आया था. यह कहना मुश्किल कि मैं लाइब्रेरी से रुबरु हो रहा था या फिर यह जानने कि वह क्या कर रही है. यह भी ठीक ठीक नहीं कह सकता कि मैं किस बात से अधिक चमत्कृत था: माइक्रोफिल्म रीडर से या फिर चांद के फांसी अंक की वह तस्वीर जो उस रीडर के पटल पर उस पल अपने धुंधलके में चमक रही थी. यह सिलसिला चल पड़ा. मैं चुपके से देख आया करता कि वह क्या पढ़ रही है. और, धीरे धीरे उस पुस्तकालय के कोनों से लगाव वढ़ने लगा. मैन्युस्क्रीप्ट सैक्शन में जहां मुझे यह विश्वास था कि महज नेहरू और कांग्रेस के दस्तावेज होंगे वहां वह माखन लाल चतुर्वेदी के खतो किताबत में मशरूफ पायी जाती. माइक्रोफिल्म पर सावरकर और मुंजे की हस्तलिखित दस्तावेज में आंख डूबोए मिलती और, ब्रिटिश हुकुमत द्वारा बैन किये प्रतिवंधित साहित्य गदर की गूंज के गुरूमुखी को उतारते हुए भी मुझे वो याद है. ऐसा नहीं कि उसे मेरी चोरी का पता नहीं हो. उसने बहुत बाद में मुझे बताया था कि लड़कियों के पीठ पीछे भी दो आंखे हुआ करती हैं और फिर उसने एक बहुत आश्वस्त करने वाली भाव प्रकट की थी. कुट्टी के कैंटीन के बाहर अहाते में आटम ब्रेक के बाद वह पहला दिन था. हम एक दूसरे से अरसे बाद मिल रहे थे. उसने ही कैंटीन चल चाय पीने का प्रस्ताव रक्खा था. हवा में हल्की रेश्मी ठंडक आ गयी थी. हॉफ सेट चाय टेबल पर आ चुका था. चाय प्याले में उड़ेलते हुए उसने पुछा था कि मैं आजकल क्या पढ़ रहा हूं. फिर, यह भी कहा था कि अगले कुछ सप्ताह वह जेनयु की लाइब्रेरी में दिनमान के साठ के दशक की प्रतियां ओर मारवाड़ी लाइब्रेरी में कुछ समय बिताएगी. फिर हम रघुबीर सहाय और 'शेखर' की बात करने लगे. चाय के बाद उस शाम मैं अपने कमरे देर से लौटा.
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