Friday, February 05, 2016

सुबह की सैर

आज सुबह सैर से लौटते हुए सड़क के किनारे जहां पक्की का कालापन खत्म होता है वहीं रेत मिट्टी पर दो सिक्के दिख गये. हम उस वक्त पड़ोस के सोसाइटी के गेट के सामने थे. हठाथ ही नजर उस तरफ मुड़ गयी. शायद मन में भय रहा हो कि कहीं कोई सिक्के उठाते देख तो नहीं रहा. शायद इस उम्मीद से कि कोई नजर आये तो पुछ कर उसकी संपत्ति वापस कर एक नैतिक जिम्मेदारी का निर्वहन ही कर लूं. पर, वहां कोई न दिखा. मैंने भी तब तक स्वभाविक रफ्तार में सिक्के उठा लिये थे. अब सबाल था कि इनका क्या किया जाय?
मन स्वत: ही बचपन की ओर मुड़ गया. याद आया हमेशा इस आस में रहना कि क्या गजब हो कि सुबह स्कूल जाते हुए या फिर शाम खेल से लौटते वक्त सड़क के किनारे पैसे मिल जाय. सपने बुने जाते. नैतिकता पहरे लगाती. पेपर में यदा कदा छपी रपटें ताकीद करबाती कि फलाने रिक्सेबाले ने नोटों की गड्डी थाने में जमा करबा कर एक आदर्श उपस्थित किया. खाली समय में दूर के रिश्तेदारों द्वारा पूछे सबाल याद आते --'अच्छा बताओ यदि तुम्हें रास्ते पर चलते हुए कभी नोटों से भरा बैग मिल जाय तो क्या करोगे? ' वो हमे तौलने के लिये यह सबाल पूछते. हम उन्हें अपने मूड के हिसाब से भटकाते. कभी नैतिक चरित्र का परिचय देते. तो, कभी कंज्यूमर संस्कृति की विशालता से अवगत करबाते.
खैर हकीकत में कभी ऐसा कोई बैग मिला नहीं आजतक. न ही कोई खजाने का नक्सा ही. पर, नसीब अपनी इतनी भी गयी गुजरी कभी न रही कि फुटकर पैसे न मिले. दरअसल, हम चाहते भी यही थे. नोटो की गड्डी या बैग मिल भी जाय तो तमाम तरह की पेचिदगियां साथ आने के खतरे हुआ करते. इसलिये आस रखते कि फुतकर सौ पचास के या दस पांच के नोट ही मिलबाना. यह आस यथार्थ के अधिक करीब भी गता और देश-काल की अपनी समझ के धरातल पर प्रोबेबिलिटी के जटिल कैलकुलेशन पर बनते. पर, दस पांच के नोट भी नहीं मिले. सबसे अधिक दफे यदि अपने खाते कुछ आया तो पच्चीस पैसे के सिक्के. गोल गोल, छोटे छोटे. पंच पियाही और बीस पियाही, वही ताम बाला, भी हाथ आये. पर, पचीस पियाही की बात ही निराली. इन बिरले छणों में अक्सर यही होता कि पैसा मिलने की खुशी छण भंगूर हुआ करती. अगले ही पल अहसास होता कि चवन्नी अपनने ही हॉफ पेंट के दांयी जेब के छेद से सरका हुआ अपराधी था.
खैर, वो तो बचपन था. आज जब किसी को आस पास न देखा तो सोचा स्कूल जाते किसी बच्चे की जेब से सरक गया होगा. पर, इन सोसायटी के बच्चे खुदड़े सिक्क् भला क्यूंकर ले जाये? फिर, लगा कि हो न हो यह ऑटो से सुबह सुबह उतरे किसी मजदूर या काम करने बाली केहाथों से फिसल गया हो. मन में कचोट हुआ. दो सिक्के थे, एक दो का और एक एक का. सोचा पास ही किनारे पर रख दूं जिसका खो गया वह खुद आकर ढ़ूढ़ लेगा. पर, मन इसे युक्ति संगत न माना. सोचा आगे किसी सेक्युरिटी गार्ड को देदूंगा. खुश हो जाएंगे. जब अपने सोसायटी के गेट पर आया तो संयोग या दुर्योग से वहां उस वक्त कोई न मिला. कहीं टहलकर बतिया रहे होंगे. हैं तो वे भी इंसान ही, फिर कठीन और लंबी ड्यूटू भी बजानी होती है. इधर उधर ही होंगे. पर, खोजकर महज तीन रूपये देना जंचा नहीं. सोचा आगे अपने बिल्डिंग के टॉवर बाले वॉचमेन को दे देंगे. कुछ ऐसा योग कि वो भी नहीं मिला. तीन रूपये के साथ घर आ गया. लक्ष्मी का आर्शीवाद भला कहीं छूटता है. यदि हाथ से जाना ही लिखा होता तो लक्ष्मी भला इतने में मुझे ही खोजकर ये तीन रूपये क्यों पकड़ाती?

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