मिनाक्षी और जे की हरी भरी कला दुनियॉं
मिनाक्षी जे एक कलाकार हैं और जे सुशील
उनके पति पेशे से पत्रकार. इस दम्पति से मेरा परिचय फेसबूक के माध्यम से ही हुआ जब ये दोनो बिहार और झाड़खंड के अंदरूनी ईलाकों में अपनी फटफटिया पर सबार एक अनोखी यात्रा पर थे. इस बात के छह आठ महिने तो हो गये होंगे. ये दोनो प्राणी गॉव, देहात, कस्बा जहां भी जाते किसी के घर रूकते और वहां केस्कूल, पुलिस स्टेशन, संथाल टोले, जैसे गैर व्यक्तिगत जगहों पर किसी दीवाल को चुन कर वहीं के लोगों की मदद से पेंटिग किया करते. फिर, इस अनुठे अनुभव को इसके फोटू को अपने ब्लाग आर्टोलॉग पर और फेसबूक जैसे माध्यम से इंटरनेट पर शेयर करते. इन सुंदर चित्रों को इनके मेजवान भी फेसबूक आदि पर चिपकाते. और रंग बिरंगी दिवारों की दुनियॉं हमारे सामने तैरने लगी. ये उन्हीं दिनों की बात है जब क्या देश और क्या बिदेश, क्या सोशल मीडिया क्या मेन स्ट्रीम मीडिया हर जगह एक दूसरी किस्म का बिहारी दीवाल चक्कर लगा रहा था, लोगों की जुबान पर चढ़ा अस्मिता की राजनीति एवं पिछड़ेपन की छौंक लगा रहा था. वह दीवार बिहार राज्य के किसी स्कूल के परीक्षा भवन की थी जिसपर परिजन जद्दोजहद के साथ लटके हमें शिक्षा प्रणाली के खोखलेपन से रूबरू करा रहे थे. वह दीवार भले ही बिहार के किसी जगह की रही हो पर मीडिया में तैरते ये अक्स शिक्षा प्रणाली की बदहाली, इस बाबत हमारे अविश्वास और इसे सवभर्ट करने की सार्वभौमिक इक्छा के वाहक के रूप में तैर रहे थे. साइकोलॉजी में एक शव्द है प्रोजेक्शन. लोग अपनी दमित इक्छाओं के अक्स के रूप में बाह्य हकीकत को रूपांतरित कर संसार को आंकते है.
खैर, तो उन्हीं दिनों मिनाक्षी और जे की सुंदर तथा अंतर्दृष्टि से भरी दीवारों से मेरा परिचय हुआ था, इसी आभासी दुनिया में.
इनके कला के सौंदर्यबोध की बात मैं यहां नहीं करूंगा पर दो बातें खास तौर पर ध्यान खिंचती है. पहला तो इसका सझिया स्वरूप जो मूलत: और अपनी समग्रता में गैर-व्यक्तिगत है. अंग्रेजी का सहारा लेकर कहें तो पार्टिसीपेटरी एंड पब्लिक आर्ट. ऐसी बात नहीं कि इस कला की अपनी परंपरा नहीं रही है या इसका आकाश नहीं हो. पर, भारत में इसकी बानगी देखने में नहीं मिलती. यहां गैर व्यक्तिगत कला को या तो लोक कला के रूप में हम चर्चा करते हैं या फिर, किसी बड़े सामाजिक संकट बाली घटना के समय किये गये राजनीति प्रेरित कला की अभिव्यक्ति के तौर पर. यदि हम अपनी दृष्टि को थोड़ा विस्तार देने की जहमत उठायें तो सड़क पर दिखाई देती साईनबोर्ड, सिनेमा के पोस्टर, विग्यापन और मजदूरों के बच्चों के हाथों कभी पेंसिल से , कभी सूर्खी से, कभी ईंट से या कभी चॉक से बनायी आड़ी तिरछी रेखाओं में कला का गैर व्यक्तिगत चेहरा देख लेते हैं. पर, मिनाक्षी और जे के प्रयोग इनसे परे जाते हैं. यह लोक कला तो नहीं है पर भागेदारी के स्तर पर सझिया है, लोक तांत्रिक है. यह सिनेमा का पोस्टर नहीं पर पब्लिक आर्ट है. राजनीतिक घटना के चौखटे में बंधा हुआ तो नहीं पर हमारी स्थापित मान्यताओं और समझ के साथ सीधे सीधे साक्षातकार करता उसे झंकझोड़ने को मुखातिब जरूर है. इस रूप में स्थापित दावों को तोड़ता नये प्रतिदावों को आकार देती कला.
दूसरी खास बात है इस कला का धरातल. कलाकार दम्पत्ति दिल्ली बासी हैं पर, अपनी जमात के कलाकारों और पब्लिक आर्ट् के प्रेक्टिसनर्स से भिन्न इनके कला का संदर्भ और जमीन महानगरीय समाज और उसकी अभिजात्यता में सिमटा हुआ नहीं है. यहां गॉव देहात, कस्बे और छोटे शहर सब बसते हैं. यहां इन समाजों और इनकी समकालीनता महज चित्रों में ही नहीं है यहां शब्द और चित्र दोनों हैं. अनुभव और रंग, आप और हम, लकीर और फकीर, आज और कल.सब एक दूसरे से मिले, हर एक अपने वजूद के साथ सांस लेता.
यदि आप दिल्ली या इसके आसपास हैं तो आज कल इस दम्पत्ति के साथ इनके कला यात्रा में भागेदारी कर सकते हैं, लोधी रोड स्थित इंडिया हैबीटेट सेंटर में जहां इनकी अनोखी कला प्रदर्शिनी अक्टूबर भर चलेगी, आपकी शिरकत के लिये. मैंने फेसबूक पर बहुतेरे परिजनो और उनके बच्चों को चहकते देखा है.
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