अभी-अभी मैं प्रो. विश्वरुप दास से बात कर रहा था। वे अहमदाबाद में रहते हैं और मूलत: अंडमान में अपना बचपन बिताया है। मैं सायास यह नहीं लिख रहा हूं कि वे मुलत: अंडमान के रहने वाले हैं। कारण बड़ा साफ है। उनके पिता और उनका परिवार बिभाजन/आजादी के समय यहां बसाये गये सन् पचास से पहले ही शायद। बारहवीँ तक पढ़ाई करने के बाद ये दिल्ली आ गये, फिर बम्बई, सूरत और अहमदाबाद में ही जिंदगी गुजरी है। साल में अन्य मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी-विस्थापितों के समान यह कहना वाकई भ्रामक होगा कि प्रो.दास मूलत: अंडमान के हैं। हमदोनो ने इस बात पर चर्चा भी की। अभी मैं बहुत नहीं लिखुंगा, इस संबंध में। लेकिन लब्बो-लुबाब यह कि वे कौन से कारक हैं जो हमे उकसाता है यह कहने के लिये कि फलां साहब मूलत: फलां जगह के हैं?
दासजी के पिता बंगाल (पूर्बी) के थे। खुद दासजी के शुरु के 16-18 साल अंडमान में गुजरा, फिर दिल्ली, मुम्बई, सूरत,अहमदाबाद( यह नाम जानबुझकर दोहराया गया है त ताकि यह रूट हमे पढ़ते वक्त बार-बार एक लंबी दूरी की यात्रा का अहसास दिलाता रहे। ये दूरियां जरुरी है इसलिये यह भी कि अंडमान के वजूद में कहीं न कहीं इस दूरी का अहसास पिरो दिया, हमने। यहाँ आगे बढ़ने से पहले यह लाजिमी हो जाता है कि इस 'हम' पर चन्द लमहें ठहरें। यह 'हम' क निहायत ही उत्तर भारतीय निर्मित्ती है। इसके पीछे के तार उसी ओर इशारा करते हैं जो भारतीय मानूष को आर्यावर्त की ओर ले जाता है। यदि मुर-कुट्टी भाषा में कहा जाय तो अंडमान की दूरी हमेशा मेन-लैण्ड से निर्धारित होती रही है। यहां गौर-तलब महज दूरी का मुद्दा नहीं है। यह है किसी जगह को देखने का अंदाजे-बयाँ जो जमीनी तर्क पर संकुचित है। इस तर्क-बुद्धि में जगह की रूप-रेखा, रहन-सहन, रिश्ते-नाते कुल मिलाकर पूरी जीवन-पद्धति मैदानी तर्क-गणित से उपनिवेषित होती है। इसमे अंडमान या फिर किसी दुसरे समुद्र-केंद्रित जगहों के लिये या फिर पर्वतिय समाज के लिये हम एक जैसे ही भौगोलिक और सामाजिक संस्थापनायें बनाकर उनके ईर्द-गीर्द अपना ताना बाना बुनते रहते हैं।
'भू-गोल' के 'भू' में क्या जल शामिल है? यदि शामिल है तो किन शर्तों पर। कहीं यह अधीन तो नहीं है, मैदानी परिकल्पनाओं के?
आप मूलत:कहां से हैं../ इस सवाल के पिछे मर्म भी हो सकता है, ये सोचने और समझने की चीज है। विस्थापन के पुराने फार्मूले से इतर यदि सोचा जाए तो एक रूट से होते हुए हम कहां से कहां जा रहे हैं।
ReplyDeleteमैं इस मुद्दे को स्पष्ट तौर पर समझना चाहता हूं आखिर विस्थापन और मूलत: शब्द का गणित क्या है।
गिरीन्द्र, मैं ठीक यही समझना चाहता हूँ कि वह कौन सा मर्म है जो हमे अपने मूल की ओर बार-बार खिंचता है?यह तान बड़ा ही मनमोहक होता है। यह हमे अतीत की ओर भी ले जाता है, मेमोरी की ओर ले जाता है। लेकिन इसका दुसरा पक्ष भी है। यह यात्रा करने की झिझक को बढ़ाबा देता है। हम डरने लगते हैं कि कहीं भटक ना जाएँ, खुद को खो देने का यह भय हमे कभी अपने मूल से दूर नहीं जाने देता है। हमे घर अच्छा लगने लगता है। पुराने जमाने में उच्च वर्ण के साहित्य में यह भय बहुत दिखाई पड़ता है। समुद्र की यात्रा निषिद कर दी गई।बहुत हाल तक बिदेश जाने बालों को पतिया लगता था। धीरे-धीरे समाज सिमटता चला गया।
ReplyDeleteपर, दुसरी ओर यह एक डोमिनेंट संकल्पना से अधिक नहीं रहा। आंतरिक रुप में समाज एक जगह से दुसरे क्षेत्र में, एक गाँव से दुसरे में, नदी के इस पार से उस पार बहुत छोटे छोटे अवधि में प्रव्रजन करता रहा। लोग घर बदलते रहे। तो पहला सवाल तो यह कि प्रैक्टिस और मोरल आक्ख्यान में इस बिरोध को किस तरह देखें। दुसरी बात, समाज के निचले हिस्से में मोबिलीटी हमेशा से बनी रही। सन् 510 से साक्ष्य हैं कि पूरा का पूरा गाँव एक इलाके से दुसरे में विस्थापित हो गया। पूर्व-औपनिवेषिक काल में सामुहिक विस्थापन स्थानिय शोषण से बचने का एक कारगर हथियार हुआ करता था।
तो जब इतना सब कुछ हो रहा था तो समाज क्या अपने मैदानी और ब्राह्मणवादी जड़ता से ग्रस्त था। लेकिन यदि नही तो हमें यात्रा-भय के बिपरीत किस प्रकार के उद्धरण मिलते हैं। अपने मूल से भटकने को क्या कभी हममे से किसी ने ऐसे उत्साह से अपने आँखो में चमक दिखाई जैसे हमने यूरोपिय भौगोलिक-वेक्ताओं की आँखो के बारे में पढ़ा है?
Probably, being on the move and being settled in urban context both happens simultaneously. It is absurd and yet very human to long for a place while 'consuming' another place. There is a Gujarati poet called Ravji Patel whose work depicts the rural memory and the urban alienation in the most creative way. The memory is there because the alienation is there.
ReplyDeleteHowever, People like Prof. Das are on the move all the time - literally and metaphorically. He would very proudly say - 'Rastama chhu' (I m on the way) - a very Amdavadi popular phrase used to buy more time.
Thanks Rutul! I do not think longing for a place or for any thing is absurd. I am not trying to question the longing but the politics of longing. It is this politics that creates stereotypes, sets up the frame for looking at the experience of (be)longing-ness.
ReplyDeleteI am grateful to you for suggesting Ravji Patel and i will try to get his poetry. What I also find suggestive in your comment is the binary of rural and urban. While writing my post i was not aware that i was actually creating this binary. I am still not sure and will pay close attention on this point. However, in my sporadic writings, i am not comfortable with the equation between rural as the site/locus of memory and belongingness and urban as a field of alienation. I am also not quite comfortable with the concept of 'consuming' place as it presupposes and comes shrouded with the logic of production leaving a constipated scope for un-charted paths of experiencing place and space.
i personally liked the expression 'rastama chhu' as it celebrates walking, wandering, Budhist spirit of paribrajan and charaiweti charaiweti. But then we also need to ask what is 'home-coming'?
गिरीन्द्र नाथ झा
ReplyDeleteगिरीन्द्र नाथ झा has left a new comment on your post "मूल का मर्म":
समाज के निचले हिस्से की मोबिलीटी और सुविधा संपन्न लोगों की मोबिलीटी पर नजर दौड़ाने पर कुछ चीजे सामने आती है। मैं उदाहरण कोसी के इलाकों को ध्यान मे रखकर देना चाहता हूं। इन इलाकों में नाटकीय तरीके से मोबिलीटी या कहें माइग्रेशन के स्टाइल में बदलाव आ रहा है।
कोसी के ताडंव के बाद सुपौल, मधेपुरा के कुछ गांव सीधे दिल्ली पहुंच गए। इन लोगों ने रोजगार और भूखमरी से बचने के लिए नए रूट को चुना। दरअसल पहले परिवार से कुछ लोग ही बाहर जाते थे।
समाजविज्ञानी इसे जिस रूप में देखें लेकिन यहां उनके मर्म को समझना होगा। नया ज्ञानोदय के ताजा अंक में रवीश कुमार ने दलित अपार्टमेंट की कहानी शीर्षक से एक लेख पेश किया है। आपकी बात को पढ़ने के बाद मैंने इसे पढ़ा तो विस्थापन के मर्म को समझा। जैसा आपने कहा है कि यह हमे अतीत की ओर भी ले जाता है, मेमोरी की ओर ले जाता है।
विस्थापन के दूसरे बदलाव का जिक्र करते हुए भी मैं कोसी की ही बात करूंगा क्योंकि वहां की आबोहवा से थोड़ी यारी की वजह से वहां की बातों को मैं थोड़ा बहुत समझता हूं। यहां के कई जिलों में बड़े किसान महानगरों की ओऱ से तेजी से रूख कर कर रहे हैं। (वैसे यह कोई नई बात नहीं है) पहले जिला मुख्यालय औऱ अब फर्स्ट टायर सिटी की ओर उनकी मोबिलीटी मुझे कंप्यूटर साइंस की तरह लगती है, मसलन की-बोर्ड के सहारे कट-पेस्ट-कॉपी करना। कहीं ये अभावग्रस्त किसानों के कदम की ही नकल तो नहीं कर रहे है।
ऐसे कई लोगों से दिल्ली में मुलाकात हुई है जिन्हें उनका मूल उन्हें बार-बार खींचता है। जैसा कि आपने मनमोहक शब्द के प्रयोग से मुझे बताया है।
वैसे यात्रा-भय का सिंड्रोम कुछ इलाकों में अब कम होने लगा है। तो क्या भय के कम होने से ही हम मूल की ओर बार-बार खिंचे चले जाते हैं।
Posted by गिरीन्द्र नाथ झा to khayalat at 10:58 AM