गिरीन्द्र, मैं ठीक यही समझना चाहता हूँ कि वह कौन सा मर्म है जो हमे अपने मूल की ओर बार-बार खिंचता है?यह तान बड़ा ही मनमोहक होता है। यह हमे अतीत की ओर भी ले जाता है, मेमोरी की ओर ले जाता है। लेकिन इसका दुसरा पक्ष भी है। यह यात्रा करने की झिझक को बढ़ाबा देता है। हम डरने लगते हैं कि कहीं भटक ना जाएँ, खुद को खो देने का यह भय हमे कभी अपने मूल से दूर नहीं जाने देता है। हमे घर अच्छा लगने लगता है। पुराने जमाने में उच्च वर्ण के साहित्य में यह भय बहुत दिखाई पड़ता है। समुद्र की यात्रा निषिद कर दी गई।बहुत हाल तक बिदेश जाने बालों को पतिया लगता था। धीरे-धीरे समाज सिमटता चला गया।
पर, दुसरी ओर यह एक डोमिनेंट संकल्पना से अधिक नहीं रहा। आंतरिक रुप में समाज एक जगह से दुसरे क्षेत्र में, एक गाँव से दुसरे में, नदी के इस पार से उस पार बहुत छोटे छोटे अवधि में प्रव्रजन करता रहा। लोग घर बदलते रहे। तो पहला सवाल तो यह कि प्रैक्टिस और मोरल आक्ख्यान में इस बिरोध को किस तरह देखें। दुसरी बात, समाज के निचले हिस्से में मोबिलीटी हमेशा से बनी रही। सन् 510 से साक्ष्य हैं कि पूरा का पूरा गाँव एक इलाके से दुसरे में विस्थापित हो गया। पूर्व-औपनिवेषिक काल में सामुहिक विस्थापन स्थानिय शोषण से बचने का एक कारगर हथियार हुआ करता था।
तो जब इतना सब कुछ हो रहा था तो समाज क्या अपने मैदानी और ब्राह्मणवादी जड़ता से ग्रस्त था। लेकिन यदि नही तो हमें यात्रा-भय के बिपरीत किस प्रकार के उद्धरण मिलते हैं। अपने मूल से भटकने को क्या कभी हममे से किसी ने ऐसे उत्साह से अपने आँखो में चमक दिखाई जैसे हमने यूरोपिय भौगोलिक-वेक्ताओं की आँखो के बारे में पढ़ा है?
Sadan Jha
Assistant Professor,
Centre for Social Studies.
Vir Narmad South Gujarat University Campus. Udhna-Magdalla Road. Surat. Gujarat. India.
blog: mamuliram.blogspot.com
http://www.css.ac.in/sadan_jha.html
समाज के निचले हिस्से की मोबिलीटी और सुविधा संपन्न लोगों की मोबिलीटी पर नजर दौड़ाने पर कुछ चीजे सामने आती है। मैं उदाहरण कोसी के इलाकों को ध्यान मे रखकर देना चाहता हूं। इन इलाकों में नाटकीय तरीके से मोबिलीटी या कहें माइग्रेशन के स्टाइल में बदलाव आ रहा है।
ReplyDeleteकोसी के ताडंव के बाद सुपौल, मधेपुरा के कुछ गांव सीधे दिल्ली पहुंच गए। इन लोगों ने रोजगार और भूखमरी से बचने के लिए नए रूट को चुना। दरअसल पहले परिवार से कुछ लोग ही बाहर जाते थे।
समाजविज्ञानी इसे जिस रूप में देखें लेकिन यहां उनके मर्म को समझना होगा। नया ज्ञानोदय के ताजा अंक में रवीश कुमार ने दलित अपार्टमेंट की कहानी शीर्षक से एक लेख पेश किया है। आपकी बात को पढ़ने के बाद मैंने इसे पढ़ा तो विस्थापन के मर्म को समझा। जैसा आपने कहा है कि यह हमे अतीत की ओर भी ले जाता है, मेमोरी की ओर ले जाता है।
विस्थापन के दूसरे बदलाव का जिक्र करते हुए भी मैं कोसी की ही बात करूंगा क्योंकि वहां की आबोहवा से थोड़ी यारी की वजह से वहां की बातों को मैं थोड़ा बहुत समझता हूं। यहां के कई जिलों में बड़े किसान महानगरों की ओऱ से तेजी से रूख कर कर रहे हैं। (वैसे यह कोई नई बात नहीं है) पहले जिला मुख्यालय औऱ अब फर्स्ट टायर सिटी की ओर उनकी मोबिलीटी मुझे कंप्यूटर साइंस की तरह लगती है, मसलन की-बोर्ड के सहारे कट-पेस्ट-कॉपी करना। कहीं ये अभावग्रस्त किसानों के कदम की ही नकल तो नहीं कर रहे है।
ऐसे कई लोगों से दिल्ली में मुलाकात हुई है जिन्हें उनका मूल उन्हें बार-बार खींचता है। जैसा कि आपने मनमोहक शब्द के प्रयोग से मुझे बताया है।
वैसे यात्रा-भय का सिंड्रोम कुछ इलाकों में अब कम होने लगा है। तो क्या भय के कम होने से ही हम मूल की ओर बार-बार खिंचे चले जाते हैं।
गिरीन्द्र नाथ झा के सवाल ने एक शानदार विचार को सार्वजनिक कर दिया। आप अब ब्लॉगवाणी पर दस्तक दे चुके हैं और अब तो मुलाकात होती रहेगी।
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