अभी अभी गिरींद्र का ब्लाग अनुभव पढ़ा। नये साल के स्वागत में किस तरह, कागज की, ग्रीटिंग कार्ड को हम भुलते जा रहे हैं इसका बड़ा अच्छा खाका खींचा है। अब हम ई-कार्ड भेजते हैं। लेकिन इनका जोर भी अब फीका परता जा रहा है। बड़े अमीरों का तो पता नहीं लेकिन मध्य वर्ग में ई-गिफ्ट का प्रचलन अभी भारत में कुछ खास नहीं दिख रहा है। कम से कम मैं अभी तक ऐसे किसी को नहीं जानता जो इंटर-नेट के जरिए गिफ्ट भेजता हो। न ही मुझे कभी यह सौभाग्य मिला है। जब मैं ई-मेल करना शुरु किया था 97-98 में तो ई-कार्ड को भेजने में बहुत उत्साह हुआ करता था। अब तो रीच टेक्सट का मेल जिसमे फान्ट रंगीन हो और खुबसुरत दिखाई दे वह भी फालतु लगता है।
अधिकतर तो फोन ही आते हैं। सबसे कोफ्त उन मैसेजों को देखकर होती है जो निहायत ही अ-व्यक्तिगत होते हैं। एक दफा मैंने कबिताऊ मैसेज गढ़ा और लोगों को भेजा, शाम तक मेरे पास तीन दोस्तों ने उसी कबिता को अपना बनाते हुए भेज दिया था।
मैं यह मानता हूं कि एस-एम-एस ने एक नयी भाषा को गढ़ा है। सम्प्रेषणियता को नया कलेबर भी दिया है। अभी इस बरस मेरे गाँव से दो निहायत ही भिन्न तरीके का जुमला आया, एक ठेठ संस्क्ूत में तो दुसरा बम्बईया ढिंचक लहजे में। दोनो में मौलिकता थी, वाक्य-संयोजन से लेकर भावना -संप्रेषण तक में।
ऐसे पाँतियों का इंतजार आज भी रहता है लेकिन कम बख्त उस दिल का क्या करें जो फोन पर मीठे बोल सुनने के बाद भी उनके हथेली के पसीने से मट मैले पर चुके कागज के लिखे लवों को पढ़ने के लिये बेचैन हो, उनके आहट को पढने का हठ करता है।
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