Thursday, April 27, 2017

विदा पूर्व दिशा, विदा पाटलिपुत्र, विदा मगध की सीढियां और भविष्य की गंध से मादित खंडहर रास्ते जहां वास है मेरी स्मृतिय़ां और मेरे प्रेमिका की हँसी।
वहीं उस सीढी पर उसी कोने में पसरी फुसफुसाहटों और तेज चलती सांसों को अपने झोले में डाल निकल पड़ा था जब, कहां अहसास रहा होगा कि सांसों की भी भला कोई गठरी हो सकती है? किसी ने सिखाया भी तो नहीं कि रास्ते कहीं ले कर नहीं जाते पथिक को। रास्ते आत्म मुग्ध हुआ करते हैं। रास्ते जानते हैं मायावी विद्या। या यों कहें कि रास्ते ही मायावी सुंदरी का एक दुसरा रुप है। वे आपको भ्रम देते हैं कि वे महज माध्यम हैं, एक जरिया भर गंतब्य तक पहुंचाने का जिम्मा भर है उनका। पर, असल में मगध में महज सीढियों का ही वास है। इन्हीं के कोने में बायें से सवा चार आंगुर पर नीचे से गमछे भर उंचाई पर ठीक मध्य में जो सिंदूर बिंदु है वहीं तुम्हारी सांसो को सजोये खड़ी है सीढियां। बुलाती है पास कुछ इस आस से कि वे बेचैन हैं तुम्हें तुम्हारी अमानत सौंप देने को। मानों जो सांस तुमने साथ ले ली थी वह अब भी वहीं उस मायावी ने बड़े जतन से संजोये हुई है। कोने न हुई मुआ कोई एटीएम हो जैसे।

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