Thursday, April 27, 2017

तस्वीर जो मेरे कैमरे ने ली नहीं कभी, कहीं।
चिपक सी गई है दीवार पर कुछ इस तरह जैसे किसी ने फोबीकोल का पीपा उलट दिया हो। उस ढाई फूटे फ्रेम में एक केतली है, रेझकी जमा चार दुअन्नी के
एक सिलबरिया तसला और दबदब उज्जर देह पर झरकल दाग बाले टुकटुक ताकते लिट्टी के सतरह गोले।
इस तस्बीर में सात सोहल लहसून , एक सिलबरिया थारी और छिपली तीन भी वैसे ही टुकुर टुकुर मुंह बाये
हर आनेजाने बालों को हसरत की नजर से देख रहे हैं।
किनारे से जहां तस्वीर का फ्रेम चनक गया है वहां एक अध वयसु महिला की सी आकृति है, शायद झुक कर सुलगती आग की मैनेजमेंट कर रही हो। इस उम्र में देह जान ही जाता बिन आखर के ही आग की दुनियादारी।
सतरहो चिंहती हैं अपनी अपनी गहकियों को। पर, उनके आने में अभी देर है। पहले आयेगा साइकिल पर दुनिया के बोझ तले। घनी चौड़ी रौबदार मूंछों और दबे कंधे पर अपने से सबा गुना लंबा बंदूक लटकाये कप्तान सिंह।
एक पांव को जमीन पर टिकाने का जतन कर बुढ़िया को साइकल के हैंडल में लटका सबा कनमा कड़ुआ तेल दे बिदा हो जाएगा कप्तान सिंह बगैर मुंह से शब्द एक भी निकाले।
फिर, सामने से गुजर जायेगा, ठेला छितन महतो का जिसपर, बैठी उसकी बेटी देखती रह जाएगी अपनी रोज की इन सतरह सहेलियों को।
आस लिये छित्तन के छौड़ी की आंखे, जिसके नजर से नजर मिलाती लिट्टयां हॉय-बॉय करेंगी। इस सबके बहुत बाद आयेगा राम सनेही और उसका लपैक लफंदर ललटून महतो। फचर फचर करता, फन्ने खां समझता।
राम सनेही के लिये दो और फन्ने खां के लिये एक, कुल तीन बिदा हो जाएंगी एक साथ...रह जाएंगी कहने गिनने को कुल जमा चौदह। पर, जो गिनती में नहीं रह पाता उसका क्या? सतरह से चौदह, चौदह से तेरह...नौ...सात...तीन और सबसे अंत में रह जाएगी एक अकेली छुटकी, अगली सुबह तक के लिये।अपनी सतरहो की सझिया आस लिये। यही हर रोज यदि होना तय हो, तो क्यों नहीं बनाती है बुढ़िया सोलह ही?
यही एक सवाल पुछती रहती हर शाम, इतने बरस से। मानो यह कोई सवाल न हो, जीने का सलीका बन गया हो
लिट्टियों के श्राद्ध से जनमा सलीका।
फिर गहरायेगी रात, फिर छिड़ेगी बात चांद की और चांदनी की,
और, गुलमोहर की चुहल पलकों में संजोये सो जाएगी तस्वीर के तीसरे कोने में सतरहो की याद संजोये।

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