Wednesday, May 18, 2016

British Library /ब्रिटिश लाइब्रेरी


Image: Sitting on History, 1995, Bill Woodrow, British Library, London

देखो तुम्हारा नाम नताशा, जूलिया, जेन, लूसी, मार्ग्रेट या फिर ऐसा ही कोई ब्रिटिश नाम होना चाहिये. प्रोपर ब्रिटिश. नहीं, मुझे गलत नहीं समझो. मुझे तुम्हारा नाम बहुत अच्छा लगता है. पर, शायद मैं जो कहना चाह रहा हूं वह यह कि तुम्हे देख कर फिर तुम्हारा नाम जानकर दोनो से एक ही छवि नहीं बन पाती. किसी बहुत प्लीजेंट सरप्राइज सा लगता है तुम्हारा नाम सुनना. जूनी. 
हम लोग उसी पुराने जगह पर बैठे हैं. सेंट पैंक्रियास, ब्रिटिश लाइब्रेरी. मेजनाइन फ्लोर. बैंच पर. सामने चार्लस डिकेंस के रहस्यमय और अंधविश्वासों की दुनिया पर पिछले पखवारे से एक्जीविशन चल रही है. दोपहर के करीब दो या ढाई बज रहे होंगे. समय का अहसास ही कुंद सा हो गया है, जबसे जूनी से मुलाकात हुई. यहीं इसी जगह, इसी राहदरी में. इसी बैंच पर. यही एक्जीविशन को देखते हुए हम मिले थे. मिले क्या थे? हमारी बातचीत शुरु हुई थी. पहल, जाहिर सी बात है, उसी ने की थी. नहीं तो कहां हो पाता मुझसे बात करना! पर, जब बातों का सिलसिला निकल पड़ा तो कौन कहां रुकने बाला था. मैं तो सोचता कि मैथिल ब्राह्मन से गप्पवाजी में कौन टिक पायेगा. पर, यह ब्रिटिश लड़की तो मुझे मात दे रही थी. या फिर, कह सकते हैं कि उसकी बातें सुनना, चुपचाप रहते जाना अपने कानो के सहारे भाने लगा है.
खैर, उसकी प्रतिक्रिया स्वभाविक रुप से त्वरित आयी.
" ये प्रोपर ब्रिटिश क्या होता है? मुझे नहीं लगता था कि तुम ऐसे शुद्धता वादी नजरिया रखते होगे. अभि भी मेरा वही विश्वास है तुम्हें लेकर. पर, तुम मुझे ऐसे शब्दों के इस्तेमाल से चौंका देते हो. और, मैं तुम्हारी तरह प्लीजेंटली सरपराइज्ड नहीं हूं. यह निराशाजनित ही है. या फिर उसकी सिमांत पर कहीं. और फिर, तुम तो इतिहास के हो, प्रेक्टिशनर( वो हमेशा यही कहती, शोधकर्ता या छात्र कहना उसे नहीं सुहाता; हां जिस दिन चुहल के मुड में होती तो प्रोफेसर कहती और इठलाकर अपनी पोनी टेल संवारने लगती)."
" देखो जूनी, मेरा दिमाग हमेशा तर्क और ज्ञान की भाषा नहीं बोलता. पता नहीं क्यों मेरे जेहन में जूनी से साउथ इस्ट एशियन छवि या फिर स्पैनिश लैटिन अमेरिकन अहसास होता है. इसकी कोई वजह भी नहीं है. कमसेकम मुझे इसका इल्म नहीं है. पर, ऐसा ही है मेरे साथ. फिर, लंदन और ब्रिटिश समाज के बारे में जानता भी तो कुछ नहीं."
"हुम्म! ये जो तर्क की अपूर्णता और जेहन की भाषा की बात जो कही तुमने वह बेहद ठहरी हुई बात है. " ओठों के किनारे पर आती हुई बहुत सुकुन भरी मुस्कुराहट को संयत करते उसने बात आगे बढ़ायी. " एक राज की बात बताती हूं ब्रिटिश लड़की को अपने नाम पर चर्चा लंबी करने में बेहन गुदगुदी सा अहसास होता है. शायद तुम्हें पता है. पर, छोडो अभी. हम नाम पर फिर कभी जरुर लौट कर समय गुजारेंगे. अभी जो ये तुमने बात से बात निकाल दी तर्क की दुनिया.. ज्ञान और दैनिक व्यवहार में के बीच के फासले ...इसका सत्य.
अपनी आंखे सामने चार्ल्स डिकेंस के रहस्यमय संसार के एक एक्जीविट पर ही टिकाये उसने कहा: जानते हो प्रोफेसर, सत्य को कहां टिका पाओगे? "
जिस अंदाज में सबाल आया यह समझना मुश्किल हो गया कि उसका अभिप्राय मेरी बातों से है या फिर चार्ल्स डिकेंस के इस रहस्यमय दुनिया से जिसकी जमीन सामने चल रही एक्जीविशन तैयार कर रही दिखती है.
" सत्य...सत्य का तर्क से सीधा कोई नाता नहीं. यह तो विज्ञान ने अपनी सहुलियत के लिये तर्क की इमारत खड़ी कर रखी है.
जिस अनुभव पर आपका विश्वास हो और जिसपर आप दुसरों को विश्वास दिला पायें वही सत्य है".
" तो बात दरअसल विश्वास की है." कहते हुए उसने एक गहरी नि:स्वास छोड़ी. पतले गले में हल्की रेशमी हलचल सी उठी हो मानो. दायीं कान पर आ गयी लटों को उंगलियों के पोरों से समेटते हुए पीछे लेते चली गयी, जूनी.

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