Tuesday, May 31, 2016

कामेडी, कार्टून और हंसी की राजनीति

तन्मय भट्ट के कमेडी पर सोच रहा हूं. हास्य व्यंग एक मान्य विधा रहा है. कॉमेडी और राजनीति का भी लंगोटिया नाता रहा है. बिरोध की अभिव्यक्ति. चाहे राज सत्ता का हो, चाहे व्यक्ति के देवीय होते जाने की सत्ता हो. दूसरी तरफ यह व्यंग अक्सर ही उसी प्रचलित भाषा, बिंब और स्टिरियोटाईप्स का सहारा लेता है जिससे पारंपरिकता, पुरुष सत्ता, जातिवाद, जैसे गंभीर शत्रुओं को फैलने के लिये अधिक आकाश मुहैया हो जाता है. पर, इन तमाम पेचिदगिंयों के बाद भी जो तार कायम रहता है वह यह कि दूसरे किसी कला की भांति कॉमेडी का हर उदाहरण एक स्टेटमेंट होता है. कभी स्पष्ट और मुखर और रैडिकल तो कभी प्रच्छन्न, अप्रत्यक्ष और कन्जरवेटिव. कभी व्यंग (चुटकुले, प्रहसन, कार्टून, कैरिकेचर, कॉमेडी आदि) जो अपनी संकल्पना में ही रिप्रेजेंटेशनल आर्ट ( इतिहास, फोटोग्राफी, पोर्टेट आदि) से भिन्न होता है अपनी माध्यम मात्र के जरिये हमें अपने होने के, अपनी समाज के और अपनी समय को देखने परखने के लिये एक भिन्न नजरिया प्रदान करता है. और, हमारी दृष्टि, आम और खास के प्रति हमारी सोच में किसी न किसी स्तर पर कुछ न कुछ जुड़ जाता है, कुछ घट जाता है. कभी गंभीरता से गुदगुदा जाता है तो कहीं मासुमियत से हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं अपनी ही कहकहों पर ढहर कर सोचने को. शायद यही कारण हो कि व्यंगकार, कॉमेडियन और कार्टूनिस्ट के ऊपर सबसे तीखे हमले हुआ करते हैं. फ्रांस के चार्ली हेब्दो पर हुआ आतंकवादी हमला हो या फिर एनसीईआरटी के पाठ्यपुस्तक में अंबेडकर-नेहरु कार्टून का विवाद हो, नरेंद्र मोदी पर कार्टून बनाने बाले हरिश यादब उर्फ मुशब्बूर को रातो रात इंदौर से गिरफ्तार कर लिया जाता है. प्रोफेसर अम्बिकेश महापात्रा को बंगाल में ममता बनर्जी के कार्टून को महज फार्वर्ड करने के लिये गिरफ्तार होना होता है. या फिर, असीम त्रिवेदी को पार्लियामेंट के कार्टून के लिये लंबी कानूनी जद्दोजगद से गुजरना होता है. क्या आपने किसी फोटोग्राफर या फिर किसी कहानीकार या कवि को हाल के दशकों में इतना प्रताड़ित होते पाया है? (हाँ, यहाँ पत्रकारों की बात अलहदा है, अक्सर उनके मार दिए जाने की उन पर हमले की और उनके ऊपर कानूनी कार्यवाही की खबर आ ही जाती है). पहले के दौर में भी बहुत उदाहरण नहीं मिलेंगे. हां, उपनिवेशिक युग, मशहूर अफसानानिगार मंटो के बहुचर्चित प्रकरणों, इमरजेंसी के दौर की बात तो खैर उल्लेखनीय है ही. फिर, हाल में समाज विज्ञानी, मनोविज्ञानी आशिष नंदी को भी लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी तो पड़ी ही. पर, क्या किसा फोटोग्राफर या एक्टर को उसके फोटो या एक्टिंग के लिये गिरफ्तार होना पड़ा है? हाल में तो नहीं.जो कार्टून हाल में आतंकी हमले या सरकारी तंत्र के चपेट में आये वे कोई बहुत  उम्दा कला के उदाहरण भी नहीं हैं. कोई गहरी राजनीतिक समझ दिखाते भी नहीं मिलते हैं.
तन्मय का सचिन- लता मंगेशकर कॉमेडी फूहड़ और बेपेंदी का है जिसमें गालियॉं और हंसी दोनो ही जबरन ठूंसी गयी हो. मैं, खुद को, अपने बिरोध के तमाम सूरों के, राजनैतिक प्रतिरोध और सत्ता की तमाम आलोचनाओं के बाद भी इस कॉमेडी के साथ खड़ा पाने में अक्षम पाता हूं. पर, कॉमेडियन के गिरफ्तारी की मांग, हर बात को कानून और पुलिस तक ले जाने की राजनीति! यह तो कोई बात नहीं हुई. क्या हम एक ऐसे समय में सॉंस ले रहे हैं जहां हर निर्णय, हमारे विवेक और नैतिकता की हर नब्ज या तो भीड़ तय करती है या पुलिस तय करे. कुछ कला सराहनीय होती है तो बहुत सी नजरअंदाज करने के लिये भी तो होती है. और वहीँ तय होता होता है कि कौन कलाकार उम्दा है और कौन नहीं.

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