Wednesday, October 21, 2015

दरभंगा, भारती भवन और स्टेंडिंग क्लब

भारती भवन हमारे स्कूल से घर वापसी के रास्ते में आता था. यह कभी घर से स्कूल जाने के रास्ते पर नहीं मिला मुझे. हम तब बहुत छोटे रहे होंगे. मैं पब्लिक स्कूल, लालबाग में पढ़ा करता था और पिताजी सी एम कॉलेज में पढ़ाया करते थे. भारती भवन, जो किताबों की दुकान हुआ करती थी, पिताजी और उनके दोस्तों के लिये बहस मुबाहिसों की जगह थी, उन दिनों. दरभंगा के टावर चौक पर जिसे बाद में अरविंद मार्केट के नाम से जाना जाने लगा उसी के एक कोने में दिन भर सुस्त सा सोये रहने वाला एक हॉल नुमा दुकान जिसके दो हिस्से कर दिये गये थे. दाखिल होते ही सामने का बड़ा हिस्सा जिसमें किताबें और कुल दो कार्यरत स्टाफों के बैठने की जगहें थी. भीतर मैनेजर का ऑफिस, पॉल साहेब का कमरा जिसमें पिताजी लोगों की बैठकी लगती. लोगों की संख्या के हिसाब से और उनकी बातचीत के डेसीबल लेबल की अनुपात में जगह छोटा था. पर, बहसों और बैचारिकी के लिये यहां पूरा आकाश हुआ करता, ऐसा उन दिनों भी मेरा मन कहता था और यही अब भी उन बहसों के प्रति मेरी अवधारना है. उन्हीं दिनों उनके बैचारिकी का दूसरा अड्डा टॉवर पर ही सड़क की दूसरी तरफ गली के मुहाने पर की चॉय की दुकान भी हुआ करती थी. लाल रंग की लेमन टी, लंबी लीफ पत्तियों बाली. वहां खड़े होकर बातों का दौर चला करता और नाम पड़ा स्टेंडिंग क्लब.बहुत सालों बाद जब हैवरमॉस का पब्लिक स्फियर पढ़ा उसके कॉफी हॉउस और सेलों के बारे में जाना तो लगा कि यह किताब की दुकान और लाल चाय की दुकान का स्टेंडिंग क्लब बौद्धिक सार्वभौमिक ईतिहास का कितना अंग रहे, उससे कितने दूर रहे.
हम भाई बहन यदा कदा स्कूल से लौटते हुए इसी भारती भवन में पिताजी से मिलने पहंुच जाया करते. उन्होने कभी हमसे अचानक आने का अभिष्ट नहीं पुछा, न ही हमने कभी कुछ मांग रखी. हमेशा हमारे आने पर बिना कुछ पुछे कहे शिवशंकर को याद किया जाता और हम उसी अरविंद मार्केट के और भीतर दरभंगा के उन दिनों के सबसे बेहतरीन रेस्टोरेंट में रसगुल्ले या फिर सिंघारा या वहां की मशहूर दही कचौड़ी की लुत्फ उठाने चल पड़ते.
आज Vidyanand Jha ने भारती भवन का जिक्र कर मन को उसा वैचारिक आकाश की तरफ मोड़ दिया, सच में कितनी जरूरत आज है हमे ऐसे स्टैंडिंग क्लबों की.

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