Friday, July 16, 2010

मुक्ति की बाट जोहते कतकरी:शिरीष खरे रायगढ़ और थाणे से लौटकर

हालांकि रायगढ़ के तुंजा कतकरी के पास अपनी संपत्ति के नाम पर शरीर पर लटके मटमैले कपड़ों के सिवाय बताने लायक कुछ भी नहीं है. इसके बावजूद चोरी के आरोप में पुलिस उसे दर्जनों बार गिरफ्तार कर चुकी है और आरोप साबित न हो पाने के चलते दर्जनों बार छोड़ भी चुकी है. हो सकता है, आप जब यह सब पढ़ रहे हों, उस समय पुलिस उसे एक बार फिर से गिरफ्तार करने की तैयारी कर रही हो. हो यह भी सकता है कि उसे एक बार फिर रिहा करने की तैयारी चल रही हो. यह सब कुछ तुंजा के साथ केवल इसलिये हो सकता है क्योंकि उसके नाम के साथ ‘कतकरी’ जुड़ा हुआ है.

तुंजा अपने नाम के साथ कतकरी जुड़े होने की सजा भुगतने वाले अकेले नहीं हैं. कुछ समय पुरानी एक खबर आपको याद है ? महाराष्ट्र के रायगढ़ में ही खेत के कुंए से पानी चुराने के आरोप में कतकरी जमात के चार लड़कों को आसपास के गांववालों ने पहले तो जमकर मारा-पीटा. उस पर भी जब मन न भरा तो उन्हें पेड़ों से बांधा और उनके गुप्तांगों को मिर्च-मसाले से भर दिया.

सूचना मिलने पर पुलिस घटनास्थल पर पहुंची और गंभीर रूप से घायल उन चारों कतकरी लड़कों को सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया. जहां उन्हें किसी तरह से मौत के मुंह से तो बचा लिया गया. मगर उनके घावों को भरे जाने का काम अब तक शुरू नहीं हुआ है.

दरअसल यहां सवरपदा, सिंधीबाड़ी, मुरमतबाड़ी, गोहे, मंदखिंद, अरधे, कुरकुलबाड़ी, कतकरबाड़ी जैसे गांव ऐसे हैं, जहां कतकरियों के माथे से अपराधी होने का कंलक अब तक नहीं धुला है.

यूं तो कतकरी महाराष्ट्र की एक शिकारी आदिम जनजाति कही जाती है लेकिन सच तो ये है कि सैकड़ों सालों से प्रणालीगत शोषण, नस्ली पूर्वाग्रह, घनघोर गरीबी के चलते अब खुद ही शिकार हो चुकी है. यह अपने लोकाचारों के चक्के पर अपनी पहचान की तलाश में घूमने वाली ऐसी जनजाति बन चुकी है, जो बदनामी के साथ-साथ अपनी पारंपरिक भूमि के लगातार छिनते जाने से अब गुमनामी के अंतिम छोर तक पहुंच चुकी है.

यूं तो ‘कतकरी’ दो मराठी शब्दों से मिलकर बना है, जिसका मतलब हैं ‘खैर नामक पेड़ से पेय पदार्थ बनाने वाले’. मगर समय के साथ आज इसका अर्थ बदल चुका है. अब चोर, डकैत, लुटेरे को ‘कतकरी’ मान लिया जाता है. मानो ‘कतकरी’ कोई जमात न हो, अपराध का एक पर्यायवाची शब्द हो.

इतिहास
गुमनामी के अंतिम छोर तक पहुंचीं ऐसी सैकड़ों जनजातियों की जड़ें, दरअसल 12 अक्टूबर, 1871 यानी किंगजेम्स स्टीफन के जमाने में बने ‘गुनहगार जनजाति अधिनियम’ से जुड़ी हुई हैं. गौरतलब है कि उस समय गुनहगार जनजातियों के तौर पर देश भर से जिन 150 से ज्यादा जनजातियों (ज्यादातर घुमंतू और अर्धघुमंतू) की पहचान की गई थी, उसमें से कतकरी भी एक थी. तब की सरकार ने ऐसी जनजातियों की गतिविधियों पर कड़ी नजर रखने और ऐसे लोगों को गिरफ्तार किए जाने के लिए पुलिस को विशेष अधिकार दिए थे.

हालांकि 1949 को आयंगर की अध्यक्षता में गठित समिति की सिफारिशों के बाद, 1952 को सरकारी दस्तावेज से अंग्रेजों का वह काला अध्याय हमेशा के लिए समाप्त किया गया और उसके स्थान पर 1959 को दूसरा अधिनियम लागू किया गया, जो केवल उन व्यक्तियों को संज्ञान में लेता है जो कि आदतन अपराधी है, न कि पूरी जाति, जनजाति या समुदाय को.

यहां से 'अपराधी' कही जाने वाली जमातों को 'विमुक्त' कहा जाने लगा. मगर हकीकत आज भी वैसी की वैसी ही है. आज भी कतकरी जैसी जनजातियों को अघोषित तौर पर अपराधिक जनजातियों की तरह ही प्रताड़ित किया जाता है.

यह सच है कि 1871 के कानून के तहत, एक-साथ और एक-बार में 150 से ज्यादा जनजातियों की एक बड़ी आबादी को अपराधी के रुप में परिभाषित किया गया था. मगर जब यह कानून अपनी जमीनी हकीकत में आया, तो इसके आगे का काम दो तरह की प्रवृतियों ने किया. पहला साम्राज्यवादी व्यस्था के सिद्धांतों पर चलने वाली हमारी पुलिसिया प्रवृतियों ने और दूसरा काम के आधार पर परिभाषित भारतीय समाज में अनादिकाल से चली आ रही जातिगत प्रवृतियों ने.

अंधेरा कायम है
अंगेजों का वह कानून तो आजादी के बाद निरस्त कर दिया गया था. मगर खास तौर से भेदभाव की संस्थागत संस्कृति के चलते कतकरी जनजाति को कभी भी सिर उठाने का मौका नहीं दिया गया.

दरअसल कतकरी जैसी जितनी भी जमातें आज अपराधी हैं, वह कभी शिकारी या योद्धा जमातें थीं. एक तरफ, अंग्रेजों ने स्थानीय स्तर से उनकी सत्ता को उनसे छीना था और उन्हें अपराधी ठहराया था तो दूसरी तरफ, भारतीय समाज में अंग्रेजों के करीब आने वाली और वर्चस्व रखने वाली जो जमातें थीं, वह आजादी के बाद भी सत्ता में अपना स्थान सुरक्षित रखने और अपराधी कही जाने वाली जमातों को हाशिए पर ढ़केलने के लिए, बारम्बार यही दोहराती रहीं कि यह तो बस अपराधी ही होती हैं. जबकि ऐसी जमातों के सामने अपराध करने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं छोड़ा जाता रहा है. ऐसे में आप ही बतलाइए, क्या इस नजरिए के साथ अपराधीकरण की प्रक्रिया को समाप्त किया जा सकता है ?

कतकरी एक शिकारी जनजाति रही है, इसलिए परंपरागत तौर से इनका जीवन खेतों से कहीं ज्यादा, जंगलों पर निर्भर रहा है, खास तौर से खैर नाम के पेडों, जंगली खाद्य पदार्थों और अन्य उत्पादों पर. मगर बीते चार दशकों से कभी वन्य, कभी वन्यजीव संरक्षण, तो कभी विकास के चलते इनके सामने खाने, रहने, जीने का सवाल बहुत तेजी से और एक साथ गहराया है. फिलहाल यह विकास की सीढ़ी के सबसे निचले पायदान पर खड़ी एक ऐसी जमात है, जो गरीबी के दुष्चक्र में बुरी तरह फंस चुकी है. जंगल तो गया सो गया, मगर यह जनजाति खेती के जरिए अनाज पैदा करने की सोचे तो आज इसके हिस्से में कोई जमीन भी नहीं है. हां, यहां से इनके सामने गांव-गांव में गंभीर कुपोषण और भुखमरी का साम्राज्य जरूर फैला हुआ है.

बंधुआ मज़दूर
इन हालातों का फायदा उठाते हुए, गैर-जनजाति समुदायों ने कतकरी जनजाति को किस तरह से एक सस्ती और बंधुआ मजदूर जमात में बदल डाला है, यह देखना है तो कभी महाराष्ट्र के थाणे इलाके में चले आइए. जहां आश, धुपद, सोनी, रसिका, बबन और उनके अन्य कतकरी साथियों को गुलामी की संस्थागत भट्टियों के बीचों बीच खड़ा देखा जा सकता है, जिन्हें धोखे और शोषण की गर्म लपटों में लगातार तपाया जा रहा है. सच्चाई यह है कि यह ईंट बनाने की लागत से भी कहीं सस्ती मजदूरी के लिए अपने सेठों के यहां काम पर जाते हैं. ईंटों की दुनिया के बाहर-भीतर बेहतर जीने के उम्मीदें राख होती रहती हैं. ईंटों के अलावा यहां इनकी जिंदगी कहीं-कहीं कोयला, पत्थरों, लकड़ियों के बीच भी दबी देखी जा सकती हैं.

बेबी, कटसला, नोना, पुरा कतकरी और उनके बहुत सारे साथियों से बात करने पर पता चलता है कि कैसे कतकरी बंधुआ मजदूर के रुप में गुलाम बनाए जा चुके हैं. अगर कतकरी शोषण के खिलाफ आवाज उठाने की सोचे भी तो ईट भट्टा मालिकों के पास ‘अपराधी जनजाति’ नामक एक मिथकीय हथियार होता है, जिसका इस्तेमाल करते हुए वह कतकरी परिवार को चोरी या डकैती के मामले में उलझा सकते हैं.

भविष्य में आपको कतकरी जनजाति तक पहुंचने के लिए सहयाद्री सीमारेखाओं में बसे रायगढ़ या थाणे इलाकों की सैर करने की भी जरूरत नहीं है. आगे से आपके सामने ‘‘मानव विकास को उसकी प्राचीन परंपराओं के साथ देखने का एकमात्र स्थान’’ वाला बोर्ड लगा हो सकता है.


रोटी और नमक
भले ही बढ़ती हुई मंहगाई के चक्कर में झोपड़पट्टी वाले पिसे जा रहे हो और बीते दिनों पूरा देश विरोध प्रदर्शन के लिए सड़क पर उतर आया हो. मगर महाराष्ट्र के थाणे इलाके से 63 साल का सुरा कतकरी रसोई गैस या पेट्रोलियम वगैरह के दामों के आसमान पर पहुंचने से अनजान ही है. उसके नाती-पोतों को सब्जी मिली तो मिली, अन्यथा नमक लगाकर काम चलाना है. जाहिर है, यह मिर्च, हल्दी, सरसों तेल, प्याज वगैरह के दामों से भी अनजान रहता है.

सुरा ने राशनकार्ड और मतदाता सूची में भेद करना अभी भी नहीं जाना है. उसके देखते-देखते तो अब तक कोई स्कूल तक पहुंचा नहीं है, मगर भूख की जद्दोजहद में जिंदगी का पहाड़े जानने वाले ऐसे कई परिवारों को वह जानता है, जो दिन भर मेहनत करते हुए भी कभी अपना पेट नहीं भर पाते हैं और काम की तलाश में गुजरात की सीमा के पार पहुंच जाते हैं.

इसी तरह सुगरा, बागमला, सरिया, मदनी, बैजू कतकरी और उनके बहुत सारे साथियों से जाना कि जब कभी कोई कतकरी परिवार भूख या बीमारी के चलते साहूकार से ऊंची ब्याज दर, जो आमतौर पर 120% से 360% तक होती है, उन्हें पैसा उधार लेता है, और उसके बाद वह पैसा चुकाने की स्थिति में नहीं होता है, तो कैसे उसे बंधुआ मजदूर बन जाना पड़ता है.

इस तरह, उस परिवार के आदमी सहित औरत और बच्चे भी ईंटों की भट्टी के काम आने लगते हैं. यह सभी सुबह जल्दी पहुंच कर पूरा दिन काम करते हैं और शाम को मूल वेतन का मामूली सा (1/3वां) हिस्सा पाते हैं. यहां का मूल वेतन 170 रूपए प्रति दिन है. इस तरह, इनका जीवन साल भर या यह कहें कि अनंतकाल तक के लिए उधारी का ब्याज चुकाते-चुकाते खर्च होता रहता है.

सरकारी नींद
यूं तो बंजारा जमातों के परिवारों के लिए सरकार द्वारा निशुल्क भूखंड आंवटित करना का प्रावधान है, मगर थाणे इलाके के अनगिनत परिवारों को ऐसी सहूलियत नसीब नहीं हुई है. कहने को सरकार के पास से कतकरी जनजाति को फुटकर राहत पहुंचाने के नाम पर लंबा-चौड़ा दस्तावेज भी मिलेगा, मगर स्थायी तौर पर राहत पहुंचाने यानी परंपरागत जमीनें लौटाने के सवाल पर वह औपचारिक तौर पर खामोशी ओढ़े हुए है.

मगर पूरन, फूला, सरू, जेब, भीखू कतकरी और उनके अन्य साथियों से बात करने पर पता चलता है कि कतकरी बच्चों को उम्र की शुरूआत से ही अपराध के दलदल से बचाने की बजाय, शासन का काम उनके आपराधिक तत्वों का पर्याप्त अभिलेखन करना होता है.

‘महाराष्ट्र राज्य आदिवासी विकास परिषद’ ने कतकरी सहित कुछ और जनजातियों को ध्यान में रखते हुए बाकायदा नागपुर में विशाल संग्रहालय बनाने की सोच रखी है. यानी आगे से आपको कतकरी जनजाति तक पहुंचने के लिए सहयाद्री सीमारेखाओं में बसे रायगढ़ या थाणे इलाकों की सैर करने की भी जरूरत नहीं है, आगे से आपके सामने ‘‘मानव विकास को उसकी प्राचीन परंपराओं के साथ देखने का एकमात्र स्थान’’ वाला बोर्ड लगा हो सकता है. और जिस जनजाति की दुनिया को आप अबतक पढ़ते-सुनते आए हैं, उस दुनिया के अतीत और आत्मनिर्भर संसार से जुड़े कई रहस्यों को आगे से संग्रहालय की चारदीवारी के भीतर ही समझा जा सकता है.
16.07.2010, 14.50 (GMT+05:30) पर प्रकाशित

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