बसंत के भोर के गुनगुनाती धूप और उस पर भी रविवार का अलसायापन। कुछ किताबें बची रह जाती हैं किसी ऐसी ही रविवार के गुनगुनाती धूप का इंतजार करती हुई।
जब वो आपके चौखट पर आती हैं तो आप बहुत उत्साहित होते हैं। आपके सामने वह बार बार किसी न किसी बहाने आती रहती है। आपको अपनी उपस्थिती का अहसास दिलाते हुए। पर, वह छूटी ही रहती चली जाती है। फिर, वह किताब आपके साथ आपकी यात्राओं की साथी बन जाती है। कुछेक हजार किलोमीटर की थकान के बाद यह सिलसिसा भी थम जाता है। एक ही किताब को बार बार यात्रा के सामान के साथ पैक होते देख आखिर पत्नी के धीरज का बांध टूट ही जाता है: ‘यदि पढ़ते नहीं तो हर बार साथ ले जाने का क्या मतलब?’
और, ऐसी ही अनगिनत कष्ट सहने के बाद बसंत के रविवार की गुनगुनाती धूप में वह किताब आपको पसंद करती है। मानो संदेशा दे रही हो कि मैंने तुम्हे अब योग्य पात्र समझ लिया। मानो अब आप उस किताब के लायक हो गये हों। पुष्यमित्र की ‘रेडियो कोसी’ ऐसी ही किताब रही है मेरे लिये। आज बसंत की धूप में उसने मुझे चुना।
एक मुख्यधारा के मीडियाकर्मी के साथ आप कोसी इस अंचल में प्रवेश करते हैं। यहां का पिछड़ापन, गरीबी, जीवन की दुरुहता कुछ ऐसे आपको बांधे रखती है, आपको बिंधती चलती है मानो आप किसी ऐसे भुगोल में जा रहे हैं जो समकालीन होकर भी इतर काल का हो, इतर खण्ड का हो। कोसी के बांधों के भीतर की जिंदगी। अपनी इन्हीं अन्य ता से शापित हो जैसे। कुछ यूं कि वहां का पिछड़ापन, वहां की जीवनशैली सबकुछ मिथकीय लगे, दंशित मिथक।
कोसी अंचल का नाम पढ़ते ही हिंदी के पाठकों का मन रेणु की तरफ भागता है। स्वभाविक ही है। पर, जिस बांधों के भीतर की बात पुष्यमित्र करते हैं, फरकिया और कुशेसर स्थान की बात, वहां की जिनगी, वह तो रेणु के मैला आंचल और परती परिकथा का अंचल नहीं है। यह तो रेणु के समय सन् पचास में था ही नहीं। कहने का यहां यह मतलब कतई नहीं कि फरकिया नहीं था या वह दंशित नहीं था। परन्तु वह बांध नहीं था जिसने पिछले सत्तर सालों में इस अंचल को शेष विश्व से काटकर रख दिया: बांध के भीतर बनाम् बांध के बाहर का समाज।रेणु बांध को कोसी की प्रताड़ना का समाधान मानते थे। वह समय नेहरु के सपनों के सम्मोहन का था जिससे रेणु अछुते नहीं थे। यही बात रेणु साहित्य को अपनी तमाम परतों के होते हुए भी युटोपियन बना देती है। उन्हें बांध की थोड़ी सी आलोचना भी सन् पचास के दशकों में नागवार लगा करती। जैसे रेणु के समय दुई पाटन के बीच का समाज बना नहीं था, उसी प्रकार पुष्यमित्र के दुई पाटन के बीच युटोपियन कैनवॉस कहीं नजर नहीं आता। यह एक डिस्टोपिक लैंडस्केप है। रेणु का कोसी अंचल पुराने पुर्णिया जिले में पसरा है। पुष्यमित्र के समय तक यह दरभंगा जिले में भी फैल चुका है। रेणु का समाज, भुगोल और कैनवास जमीन से देखे जाते, धरती पर खिंचे जाते रेखाओं और रंगो से बना रचा है। पुष्यमित्र के यहां इस कैनवॉस में, इसके भुगोल में और इस समाज में सुखी धरती और पानी का मिश्रण कुछ यूं कि आप यह फरक नहीं कर सके कि भू-गोल में भू कितना और जल कितना। मचान पर जिंदगी गुजारते समाज का भूगोल आखिर धरती से ही तो मुक्कमल तौर से लिखा नहीं जा सकता। इसलिये रेणु के पन्नों में मल्लाह बनते किसान भी नहीं मिलते।
रेणु के साथ तुलनात्मकता अनुचित है। शिल्प की बात और भी बहुत कुछ है जिसकी बात करनी होगी। साहित्य और पत्रकारिता के बीच के तारों पर बातें करनी होगी।पर, क्या करें कोसी अंचल की बात हो तो रेणु की तरफ मन मुड़ ही जाता है।
खैर, सच कहुं तो रेडियो कोसी पढ़ते वक्त जितनी याद रेणु की आयी उससे कम अमिताभ घोष की भी नहीं। अमिताव घोष एक दफे रेणुपुर नामक रहस्यमय जगह का उल्लेख करते है। कलकत्ता से ट्रेन लेकर दरभंगा होते हुए इस रहस्यमय जगह पहुंचा गया। हां, हमेशा कि तरह घोष महज घटना, इतिहास के साथ ही नहीं बरन् दूरी और भूगोल से भी खेलते हैं। खैर, घोष के भुतहा रेणुपुर को पढ़ते हुए मुझे बार बार साहित्यकार रेणु की ही याद आई थी। क्या यह संयोग रहा होगा कि घोष ने इस भुतहा और रहस्यमय और जलाप्लावित टीसन का नाम रेणुपुर रख दिया या फिर इस हेटरोटोपिक से जगह को रचते हुए वे रेणु के कोसी अंचल को जेहन में रखे हुए थे।
पर, अमिताव घोष के रेणुपुर पढ़ते हुए मुझे एक और ख्याल आया। वह यह कि हम हमेशा रेणु के कोसी अंचल में हिंदी प्रांत, उत्तर प्रदेश और बिहार के पश्चिमी इलाके से गुजर कर ही पहुंचते हैं। गंगा जमुनी थाती और हिंदी के साहित्यिक धरातल से होते हुए रेणु के पूर्णिया जाने के हम यूं अभ्यस्त हो चुके हैं कि कभी हमने यह सोचा ही नहीं कि कोसी अंचल में पहुंचने के दूसरे रास्ते भी हो सकते हैं। जैसे हम कलकत्ते से भी कोसी अंचल जा सकते हैं। बंगाली साहित्यिक थाती के जरिये भी रेणु और उनके प्रयोगों को उनके धरातल को समझ सकते हैं। मैंने अन्य कहीं कलोल आंदोलन और रेणु साहित्य को समझने के लिये इस आंदोलन से निकलते सूत्रों को पकड़ने की बात कही है। पर, रेणु के अंचल की यात्रा पूरब से, बंगाल और असम की तरफ से और जिवानंददास के बरक्स करने की कबायद रोचक हो सकती है।
यह कुछ वैसा है जैसे पुष्यमित्र के रेडियो कोसी में फरकिया के घमहरा के कात्यायनी मंदिर के पास बलकुंडा की दुर्घटना ने बरबस ही अमिताव घोष के भुतहा रेणुपुर की याद दिला दी। यह कल्पना, साहित्य और सत्य के एक दूसरे गुत्थम गुत्थ होने की ऐसी धरातल है जो है तो आपके पड़ोस में ही, जो बसता है आप ही की समकालीनता में पर जो किसी दूसरी बहुत पहले के सदी की बात लगती है। पाटने के लिहाज से नामुमकिन सी लगती मिथकीय दूरी का अहसास देती। एक ऐसा समाज जहां के रोजमर्रा को समझने के लिये महज एक ही तरीका है: ट्यून इन करें एफ एम के 82.7 पर रेडियो कोसी।
जब वो आपके चौखट पर आती हैं तो आप बहुत उत्साहित होते हैं। आपके सामने वह बार बार किसी न किसी बहाने आती रहती है। आपको अपनी उपस्थिती का अहसास दिलाते हुए। पर, वह छूटी ही रहती चली जाती है। फिर, वह किताब आपके साथ आपकी यात्राओं की साथी बन जाती है। कुछेक हजार किलोमीटर की थकान के बाद यह सिलसिसा भी थम जाता है। एक ही किताब को बार बार यात्रा के सामान के साथ पैक होते देख आखिर पत्नी के धीरज का बांध टूट ही जाता है: ‘यदि पढ़ते नहीं तो हर बार साथ ले जाने का क्या मतलब?’
और, ऐसी ही अनगिनत कष्ट सहने के बाद बसंत के रविवार की गुनगुनाती धूप में वह किताब आपको पसंद करती है। मानो संदेशा दे रही हो कि मैंने तुम्हे अब योग्य पात्र समझ लिया। मानो अब आप उस किताब के लायक हो गये हों। पुष्यमित्र की ‘रेडियो कोसी’ ऐसी ही किताब रही है मेरे लिये। आज बसंत की धूप में उसने मुझे चुना।
एक मुख्यधारा के मीडियाकर्मी के साथ आप कोसी इस अंचल में प्रवेश करते हैं। यहां का पिछड़ापन, गरीबी, जीवन की दुरुहता कुछ ऐसे आपको बांधे रखती है, आपको बिंधती चलती है मानो आप किसी ऐसे भुगोल में जा रहे हैं जो समकालीन होकर भी इतर काल का हो, इतर खण्ड का हो। कोसी के बांधों के भीतर की जिंदगी। अपनी इन्हीं अन्य ता से शापित हो जैसे। कुछ यूं कि वहां का पिछड़ापन, वहां की जीवनशैली सबकुछ मिथकीय लगे, दंशित मिथक।
कोसी अंचल का नाम पढ़ते ही हिंदी के पाठकों का मन रेणु की तरफ भागता है। स्वभाविक ही है। पर, जिस बांधों के भीतर की बात पुष्यमित्र करते हैं, फरकिया और कुशेसर स्थान की बात, वहां की जिनगी, वह तो रेणु के मैला आंचल और परती परिकथा का अंचल नहीं है। यह तो रेणु के समय सन् पचास में था ही नहीं। कहने का यहां यह मतलब कतई नहीं कि फरकिया नहीं था या वह दंशित नहीं था। परन्तु वह बांध नहीं था जिसने पिछले सत्तर सालों में इस अंचल को शेष विश्व से काटकर रख दिया: बांध के भीतर बनाम् बांध के बाहर का समाज।रेणु बांध को कोसी की प्रताड़ना का समाधान मानते थे। वह समय नेहरु के सपनों के सम्मोहन का था जिससे रेणु अछुते नहीं थे। यही बात रेणु साहित्य को अपनी तमाम परतों के होते हुए भी युटोपियन बना देती है। उन्हें बांध की थोड़ी सी आलोचना भी सन् पचास के दशकों में नागवार लगा करती। जैसे रेणु के समय दुई पाटन के बीच का समाज बना नहीं था, उसी प्रकार पुष्यमित्र के दुई पाटन के बीच युटोपियन कैनवॉस कहीं नजर नहीं आता। यह एक डिस्टोपिक लैंडस्केप है। रेणु का कोसी अंचल पुराने पुर्णिया जिले में पसरा है। पुष्यमित्र के समय तक यह दरभंगा जिले में भी फैल चुका है। रेणु का समाज, भुगोल और कैनवास जमीन से देखे जाते, धरती पर खिंचे जाते रेखाओं और रंगो से बना रचा है। पुष्यमित्र के यहां इस कैनवॉस में, इसके भुगोल में और इस समाज में सुखी धरती और पानी का मिश्रण कुछ यूं कि आप यह फरक नहीं कर सके कि भू-गोल में भू कितना और जल कितना। मचान पर जिंदगी गुजारते समाज का भूगोल आखिर धरती से ही तो मुक्कमल तौर से लिखा नहीं जा सकता। इसलिये रेणु के पन्नों में मल्लाह बनते किसान भी नहीं मिलते।
रेणु के साथ तुलनात्मकता अनुचित है। शिल्प की बात और भी बहुत कुछ है जिसकी बात करनी होगी। साहित्य और पत्रकारिता के बीच के तारों पर बातें करनी होगी।पर, क्या करें कोसी अंचल की बात हो तो रेणु की तरफ मन मुड़ ही जाता है।
खैर, सच कहुं तो रेडियो कोसी पढ़ते वक्त जितनी याद रेणु की आयी उससे कम अमिताभ घोष की भी नहीं। अमिताव घोष एक दफे रेणुपुर नामक रहस्यमय जगह का उल्लेख करते है। कलकत्ता से ट्रेन लेकर दरभंगा होते हुए इस रहस्यमय जगह पहुंचा गया। हां, हमेशा कि तरह घोष महज घटना, इतिहास के साथ ही नहीं बरन् दूरी और भूगोल से भी खेलते हैं। खैर, घोष के भुतहा रेणुपुर को पढ़ते हुए मुझे बार बार साहित्यकार रेणु की ही याद आई थी। क्या यह संयोग रहा होगा कि घोष ने इस भुतहा और रहस्यमय और जलाप्लावित टीसन का नाम रेणुपुर रख दिया या फिर इस हेटरोटोपिक से जगह को रचते हुए वे रेणु के कोसी अंचल को जेहन में रखे हुए थे।
पर, अमिताव घोष के रेणुपुर पढ़ते हुए मुझे एक और ख्याल आया। वह यह कि हम हमेशा रेणु के कोसी अंचल में हिंदी प्रांत, उत्तर प्रदेश और बिहार के पश्चिमी इलाके से गुजर कर ही पहुंचते हैं। गंगा जमुनी थाती और हिंदी के साहित्यिक धरातल से होते हुए रेणु के पूर्णिया जाने के हम यूं अभ्यस्त हो चुके हैं कि कभी हमने यह सोचा ही नहीं कि कोसी अंचल में पहुंचने के दूसरे रास्ते भी हो सकते हैं। जैसे हम कलकत्ते से भी कोसी अंचल जा सकते हैं। बंगाली साहित्यिक थाती के जरिये भी रेणु और उनके प्रयोगों को उनके धरातल को समझ सकते हैं। मैंने अन्य कहीं कलोल आंदोलन और रेणु साहित्य को समझने के लिये इस आंदोलन से निकलते सूत्रों को पकड़ने की बात कही है। पर, रेणु के अंचल की यात्रा पूरब से, बंगाल और असम की तरफ से और जिवानंददास के बरक्स करने की कबायद रोचक हो सकती है।
यह कुछ वैसा है जैसे पुष्यमित्र के रेडियो कोसी में फरकिया के घमहरा के कात्यायनी मंदिर के पास बलकुंडा की दुर्घटना ने बरबस ही अमिताव घोष के भुतहा रेणुपुर की याद दिला दी। यह कल्पना, साहित्य और सत्य के एक दूसरे गुत्थम गुत्थ होने की ऐसी धरातल है जो है तो आपके पड़ोस में ही, जो बसता है आप ही की समकालीनता में पर जो किसी दूसरी बहुत पहले के सदी की बात लगती है। पाटने के लिहाज से नामुमकिन सी लगती मिथकीय दूरी का अहसास देती। एक ऐसा समाज जहां के रोजमर्रा को समझने के लिये महज एक ही तरीका है: ट्यून इन करें एफ एम के 82.7 पर रेडियो कोसी।
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