"तिजा तेरा रंग था मैं तो, जिया तेरे ढंग से मैं तो।
तुही था मौला तुही आन, मौला मेरे ले ले मेरी जान।।"
गाने
हमारी जन चेतना के आधार स्तंभ हुआ करते हैं, कुछ उसी तरह जैसे प्रेस, जैसे
पाठ्य पुस्तक, जैसे क्रिकेट, जैसे टेलिविज़न और जैसे पिछले कुछ वर्षों में
फ़ेसबुक, ट्विटर और व्हाट्स अप। जयदीप साहनी के सीधे दिल को छनने बाले
बोल, 2007 की फ़िल्म 'चक दे इंडिया' का यह गीत जिसे कृष्णा और सलीम मर्चेंट
ने गाया और सलीम- सुलेमान की जोड़ी ने संगीत से नवाज़ा है ऐसा ही एक गीत
है। हमारी चेतना को ताक़ीद कराता, एक हूक है एक लंबी तान।
मैं तेरा तीसरा रंग था, मैंने तो अपनी ज़िंदगी तेरे ही साँचे में जिया...
इसे ऐसे भी तो पढ़ सकते हैं: तिरंगे, मैं तेरा ही रंग था...
अच्छे
गाने, कविता या फिर पेंटिंग की यही ख़ासियत होती है। अर्थों की अधिकता।
बोलों के बीच आपकी कल्पना को आकाश मिलता है। आपका मन बंध जाता। रस्सियाँ
खुल जाती हैं। गिरह गाँठ ढीली।
हरा,
हमारे तिरंगे का तीसरा रंग। धरती के ख़ुशहाली का आवरण, नवयुवतियों की धानी
चुड़ियो की चमक, उल्लास का रंग, सुख और समृद्धि का रंग, पर्यावरण का रंग
और पैग़म्बर मोहम्मद साहब के झंडे का पवित्र रंग।
कबीर
खान पैनल्टी स्ट्रोंग को गोल में तब्दील नही कर पाते और इंडिया पाकिस्तान
से हाकी में हार जाता है। कबीर खान हीरो से ग़द्दार क़रार दे दिये जाते
हैं। सिनेमा स्क्रीन पर हूक उठती है, मैं तो तुम्हारा ही रंग था, तुझसा ही
तो ढाला मैंने अपने होने को। तुम्हें ही तो माना मैंने मौला, फिर ये कैसी
ज़िल्लत? अब और क्या यह जान ही ले ले। यह जान भी तुम्हारी।
कबीर
खान का दर्द एक समुदाय की आवाज़ अख़्तियार करता है, कानों में। एक बहुत ही
भिन्न रूप में मर्सिया सा है यह गीत। वही मर्सिया जो एक ज़माने में
'मुस्लिम सोशल' का एक अहम हिस्सा हुआ करती थी। हरा, कबीर खान, मुसलमान
समुदाय, समुदाय की पीड़ा। कौन सुने यह, किससे साझा करे यह दर्द? आख़िर
तिरंगा ही तो उसका अपना है। वही तो साझेदार है, राज़दार है।
समुदाय
और रंग का सीधा समीकरण हमारी राजनैतिक जन चेतना में प्रमुखता से रहा
है।संविधान सभा और स्कूल के किताबों में तिरंगे के रंगों को सार्वभौमिक
मुल्यों से ही नवाज़ा गया है लेकिन जन संस्कृति के अपने धरातल रहे हैं। और
फिर यह समीकरण भी नया तो नहीं।
महात्मा
गांधी जब 1921 में पिंग्ली बेंकैया के चार साल के अथक प्रयास के बाद एक
झंडे की अहमियत पर राज़ी हुये तो उनके मन में भी यह समीकरण स्पष्ट था। सबसे ऊपर सुफेद हिंदुस्तान के अल्प संख्यक समुदायों के लिए. उसके नीचे हरा मुसलमान समुदाय के लिये और सबसे नीचे लाल हिंदु समुदाय के लिये। लेकिन इन सबके बाबजुद महात्मा के लिये झंडा तभी मुकम्मल हुआ जब लाला हंसराज ने बीच में चर्खे डालने का सुझाव दिया। बग़ैर चर्खे का झंडा, गांधी जी को मंज़ूर न था।
स्वराज
झंडा, सुराज झंडा, गांधीजी का झंडा, राष्ट्रीय झंडा, कांग्रेस का झंडा,
असहयोग का झंडा जितनी मुँह उतनी बातें। चर्खा और टोपी तो कुछ साल पहले से आ
ही गये थे लेकिन झंडा ने आते ही जनता के बीच अपनी ख़ास जगह बना ली। तभी तो
कुछ ही समय में पहले जबलपुर फिर नागपुर में 1922 और फिर 1923 में इस
नवोदित झंडे की प्रतिष्ठा में पूरे पाँच महीने का मार्च से अगस्त तक झंडा
सत्याग्रह चला। ग़ौर तलब हो कि गांधी जी ने 1922 के फरबरी के शुरू में ही
चौरी चौरा की घटना से व्यथित हो असहयोग-ख़िलाफ़त आंदोलन को वापस ले लिया
था। ऐसे में झंडा ऑंदोलन स्थानीय नेताओं ने ही शुरु की थी। यहाँ भी प्रांत
के हिंदी भाषी और मराठी भाषी नेताओं में भी मतभेद और गुटबंदी थी। इन सबके
बाद भी सत्याग्रह चला, हर दिन सत्याग्रहियों का एक दल एडमिंनिस्ट्रेशन के
आदेश का अत्यंत शांतिपूर्ण तरीके से उल्लंघन करता हाथों में स्वराज झंडे को
लिये सिविल साइंस से गुज़रने की कोशिश करता और गिरफ़्तार कर लिया जाता।
सत्याग्रह की बात फैली, अन्य इलाक़ों से जत्थे आने लगे और कांग्रेस के
आलाओं ने भी सुध ली। ख़ैर, पाँच महीने के बाद प्रशासन ने थक कर प्रतिबंध
हटा लिये और सत्याग्रहियों को झंडे के साथ जाने की अनुमति मिली। सत्याग्रह
समाप्त हुआ। झंडा और भी मुखर हुआ।
महिमा
बढ़ी तो दाबे भी बढ़े। बीस के दशक के उत्तरार्ध में सिक्ख समुदाय के एक
वर्ग ने अपने पवित्र पीले रंग को झंडे में शामिल करने का दबाव बनाया। इन
वर्षों में देश सांप्रदायिक दंगों का भी शिकार बना। पहली दफ़ा दंगों ने उप
महाद्विपीय विस्तार लिया था। इन परिस्थितियों में कांग्रेस के नेतृत्व के
पास विकल्प साफ़ थे। वे झंडे की लोकप्रियता का लाभ उठाना चाहते थे। पर
सांप्रदायिकता से बचाव के साथ। गांधी जी का झंडा लोकप्रिय था लेकिन
कांग्रेस का यह अभी तक औपचारिक पार्टी चिन्ह नहीं था। समुदाय और रंग के
दावे से भी चिन्ता थी। तो, 1931 में कांग्रेस ने आधिकारिक तौर पर झंडे को
अपनाया। लंबी प्रक्रिया से गुज़रे। लब्बो लुबाब यह कि नये झंडे में लाल की
जगह केसरी ने ली। कांग्रेस नेताओं ने कहा कि रंगों के चयन के पीछे आधार
धार्मिक समुदाय न होकर ऐसे मुल्यबोध हैं जो व्यापक और सार्वभौमिक आकार के
हैं। कुल मिलाकर यह व्यवस्था सन् सैंतालिस में भी जारी रही जब संविधान सभा
ने सर्व सम्मति से 22 जुलाई 1947 कोस्वतंत्र भारत का राष्ट्रीय ध्वज पारित
किया। एक अहम बदलाव चर्खे के बदले अशोक चक्र के रूप में आया जो नीले रंग
में है। गांधी जी का चर्खा जो आम आदमी के जद्दोजहद का प्रतीक था, बुढी
बिधवाओं की सखी हुआ करती थी उसे इतिहास के चिन्ह से बदल दिया गया। गांधी जी
कहा करते कि वह देश सुखी है जिसका इतिहास नहीं है। वही इतिहास अखाड़ा बन
बैठा है। हममें से कोई अतीत की बात नहीं कहता, हम बिज्ञान की भाषा में
लिप्टे निरपेक्ष इतिहास को पूरी साप्ताहिक से एक दूसरे पर आरोपित करने को
आमदा हैं। गांधीजी कहते थे इतिहास में खुन ख़राबे और युद्ध अटे पड़े हैं।
अतित सुकून देता है।मनोचिकित्सक भी आपको अपने अतित में झाँकने को कहता है
आपको स्मृति और विस्मरण के आग़ोश में ले जाता इतिहास याद करने की सलाह नहीं
देता।
ख़ैर,
कबीर खान अपनी और दर्शकों की इन्हीं साझी विरासत इसी सम्मिलित स्मृति के
बल पर फ़िल्म कथा में एक बार फिर महानायक का शक्ल अख़्तियार करता है। देश
की गरिमा को कुछ ऐसे पुन:स्थापित करता है जो कल्पनातीत ही तो था। सवाल है
कि हम उसे इस जद्दोजहद में कितने साथ हैं। हमारे लिये हरा कितना पवित्र है?
https://www.youtube.com/watch?v=n36CAYMKOd4&sns=em
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