आज फेस बुक से पता चला कि प्रो. बिपन चन्द्र नहीं रहे. कुछ दिन पहले ही कि तो बात है जब ऐसे ही एक बहुत ही आम से दिन इसी फेस बुक ने इत्तिला दी कि अनंतमूर्ति गुजर गए. खैर, दोपहर को भोजन करने गया तो एक सहकर्मी से इस दुखद समाचार साझा किया तो उन्होंने स्वतः ही कहा आजकल कई ऐसे लोग गुजर गए हैं पता नहीं...(अगला शव्द क्यों) शायद अनुतरित ही रह गया या फिर उसे तार्किक सोच ने जुबाँ पर आने से रोक दिया.
प्रो. बिपन चन्द्र को एक ही बार सुनने का मौका मिला. मैं अपना याददास्त दुरुस्त करता हूँ...नहीं, दो बार. लेकिन दुसरे दफे कि स्मृति पता नहीं क्यों धूमिल है. बहरहाल, यह महत्वपूर्ण नहीं.
किशोरावस्था में जब से इतिहास से मोह हुआ (कुछ तो क्वीज प्रतियोगिता के कारण, कुछ अपने पिताजी के किताबों की आलमारी के कारण और कुछ बड़े भाई के प्रतियोगिता परीक्षा में इतिहास लेने के कारण उनके उत्साहित बात चित के कारण) तब से बिपन चन्द्र का नाम सुनता ही रहा. हाँ बहुत बाद में जाना कि नाम दरअसल बिपन चन्द्र है न कि बिपिन चन्द्र. यह नाम वैसे ही जेहन का हिस्सा था जैसे रोमिला थापर, डी. डी. कौसम्बी, राम शरण शर्मा, के. के दत्त (बिहार की पृष्ठिभूमि जो थी), ए.एल. बाशम, पर्सिवल स्पीयर, डी. एन. झा, टॉयनवी और एच जी. वेल्स. कुल मिलाकर ये नाम थे जिन्हें इतिहासकार के नाम से जानता था. बाद में नामों की लिस्ट बढती चली गयी और स्मृति के नामों में भीषण फेर बदल तो होना ही था. सुमित सरकार का नाम बहुत बाद में सुना. लेकिन जब से दिल्ली विश्वविद्यालय की परम्परा (यदि वास्तव में ऐसा कुछ है भी) का हिस्सा बना तो अपने को सुमित सरकार बनाम बिपन चन्द्र के प्रचलित नूरा कुश्ती में भी दोनों को आंकते हुए पाया. उन दिनों दो दल हुआ करते थे एक जो रोमिला थापर को महान इतिहासकार मानते और दूसरा जो राम शरण शर्मा को बेहतर. एक जो बिपन चन्द्र को सर्वश्रेष्ट और दुसरे जो सुमित सरकार को. बहरहाल, समय के साथ दोनों को पढ़ा और दोनों की अहमियत भी जानी.
इतिहासकारों या लेखकों को देखने का उनसे मिलने का उमंग पता नहीं क्यों पहले भी नहीं रहा और आज भी इसे बेहूदा ही मानता हूँ. लेकिन जिन्हें पढ़ा हो उन्हें सुनने का चाव था. तो, जब बी. ए. के दौरान एक दिन पता चला कि पास के हिन्दू कालेज में बिपन चन्द्र बोलने बाले हैं तो भला यह मौका कैसे छोड़ता. एक छोटे कद के ( यदि वे लम्बे थे तो मुझे माफ़ करें, पर मैंने उन्हें सभागार में जो देख था और जो छवि याद है उसमें वे छोटे ही थे कद में), सौम्य व्यक्तित्व. उन्हें हिन्दू कालेज फेसिलितेत कर रहा था. वे हिन्दू कालेज में प्राध्यापक थे. उन्होंने अपने प्रिय शिक्षकों के बारे में बातें की. कुल ढाई लोगों को वे शिक्षक मानते थे. उन्होंने नाम गिनाये जो मेरे लिए अनजान थे और मेरे स्मृति का हिस्सा नहीं बने. लेकिन जिस तरह से उन्होंने उन ढाई लोगों को सामने रखा वह काबिले तारीफ़ थी. ये ढाई लोग उनके इतिहासकार बनने में निर्णायक रहे थे.फिर उन्होंने कहा कि यदि आप इतिहासकार हैं, आप एक शिक्षक हैं तो आप अपनी किसी भी पसंदीदा हाबी को साथ साथ निभा भी सकते हैं. आप एक साथ इतिहासकार, शिक्षक, कवि, खिलाड़ी, सब कुछ हो सकते हैं. साथ साथ गिटार भी बजा सकते हैं और संगीत के शौक को भी तरजीह दे सकते हैं. इतिहास और शिक्षण आपको इसकी जमीन और समय मुहैय्या कराता है. यह उन्होंने अपने इन्ही ढाई शिक्षकों में से एक से सिखा था. यह बात मेरे जेहन में बनी रही.
प्रो. बिपन चन्द्र को एक ही बार सुनने का मौका मिला. मैं अपना याददास्त दुरुस्त करता हूँ...नहीं, दो बार. लेकिन दुसरे दफे कि स्मृति पता नहीं क्यों धूमिल है. बहरहाल, यह महत्वपूर्ण नहीं.
किशोरावस्था में जब से इतिहास से मोह हुआ (कुछ तो क्वीज प्रतियोगिता के कारण, कुछ अपने पिताजी के किताबों की आलमारी के कारण और कुछ बड़े भाई के प्रतियोगिता परीक्षा में इतिहास लेने के कारण उनके उत्साहित बात चित के कारण) तब से बिपन चन्द्र का नाम सुनता ही रहा. हाँ बहुत बाद में जाना कि नाम दरअसल बिपन चन्द्र है न कि बिपिन चन्द्र. यह नाम वैसे ही जेहन का हिस्सा था जैसे रोमिला थापर, डी. डी. कौसम्बी, राम शरण शर्मा, के. के दत्त (बिहार की पृष्ठिभूमि जो थी), ए.एल. बाशम, पर्सिवल स्पीयर, डी. एन. झा, टॉयनवी और एच जी. वेल्स. कुल मिलाकर ये नाम थे जिन्हें इतिहासकार के नाम से जानता था. बाद में नामों की लिस्ट बढती चली गयी और स्मृति के नामों में भीषण फेर बदल तो होना ही था. सुमित सरकार का नाम बहुत बाद में सुना. लेकिन जब से दिल्ली विश्वविद्यालय की परम्परा (यदि वास्तव में ऐसा कुछ है भी) का हिस्सा बना तो अपने को सुमित सरकार बनाम बिपन चन्द्र के प्रचलित नूरा कुश्ती में भी दोनों को आंकते हुए पाया. उन दिनों दो दल हुआ करते थे एक जो रोमिला थापर को महान इतिहासकार मानते और दूसरा जो राम शरण शर्मा को बेहतर. एक जो बिपन चन्द्र को सर्वश्रेष्ट और दुसरे जो सुमित सरकार को. बहरहाल, समय के साथ दोनों को पढ़ा और दोनों की अहमियत भी जानी.
इतिहासकारों या लेखकों को देखने का उनसे मिलने का उमंग पता नहीं क्यों पहले भी नहीं रहा और आज भी इसे बेहूदा ही मानता हूँ. लेकिन जिन्हें पढ़ा हो उन्हें सुनने का चाव था. तो, जब बी. ए. के दौरान एक दिन पता चला कि पास के हिन्दू कालेज में बिपन चन्द्र बोलने बाले हैं तो भला यह मौका कैसे छोड़ता. एक छोटे कद के ( यदि वे लम्बे थे तो मुझे माफ़ करें, पर मैंने उन्हें सभागार में जो देख था और जो छवि याद है उसमें वे छोटे ही थे कद में), सौम्य व्यक्तित्व. उन्हें हिन्दू कालेज फेसिलितेत कर रहा था. वे हिन्दू कालेज में प्राध्यापक थे. उन्होंने अपने प्रिय शिक्षकों के बारे में बातें की. कुल ढाई लोगों को वे शिक्षक मानते थे. उन्होंने नाम गिनाये जो मेरे लिए अनजान थे और मेरे स्मृति का हिस्सा नहीं बने. लेकिन जिस तरह से उन्होंने उन ढाई लोगों को सामने रखा वह काबिले तारीफ़ थी. ये ढाई लोग उनके इतिहासकार बनने में निर्णायक रहे थे.फिर उन्होंने कहा कि यदि आप इतिहासकार हैं, आप एक शिक्षक हैं तो आप अपनी किसी भी पसंदीदा हाबी को साथ साथ निभा भी सकते हैं. आप एक साथ इतिहासकार, शिक्षक, कवि, खिलाड़ी, सब कुछ हो सकते हैं. साथ साथ गिटार भी बजा सकते हैं और संगीत के शौक को भी तरजीह दे सकते हैं. इतिहास और शिक्षण आपको इसकी जमीन और समय मुहैय्या कराता है. यह उन्होंने अपने इन्ही ढाई शिक्षकों में से एक से सिखा था. यह बात मेरे जेहन में बनी रही.
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