Thursday, December 24, 2009

समीक्षा: जंगल जहां शुरू होता है(उपन्यास)



चंद बरस पहले मै किताब की समीक्षा लिखा करता था. नीचे दी गयी समीक्षा लीतेरेत वर्ल्ड दाट काम पर २००१ मे प्रकाशित हुई थी.
पुस्तक : जंगल जहां शुरू होता है(उपन्यास)
लेखक : संजीव
मूल्य : 250 रूपये
पृष्ठ : 287
प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन
समीक्षक : सदन झा


बचपन में पढ़ा और सुना करता था कि जंगल में बाघ, भालू, चीते और अन्य हिंसक जानवर रहा करते हैंऔर जंगल में डाकू भी रहते हैं। जंगल अर्थात्‌ भय, असुरक्षा, असीमित कठिनाइयां और अव्यवस्था। कुछ बड़े होने पर जंगल में संभावनाएं भी नजर आने लगीं। आधुनिक आख्यानों में जंगल मध्यवर्गीय रूमानियत की एक ऐसी जगह (स्पेस) है जो सामाजिक और आर्थिक शोषण या फिर कहें कि सभ्यता जनित अंतःविरोधों से मुक्त है, उपन्यासकार संजीव के जंगल में बाघ भी हैं, डाकू तो खैर हैं ही, साथ ही मध्यवर्गीय रूमानियत भी है लेकिन यह कोई पृथक असंपृक्त व्यवस्था हीन जगह नहीं है। यह हमारे आस-पास है हर तरफ। हमारे अंदर से निकलता हुआ। 'मिनी चंबल' के नाम से कुख्यात पश्चिमी चंपारण (बिहार) की अपहरण संस्कृति के तार्नेबाने की पड़ताल करता है संजीव का उपन्यास 'जंगल जहां शुरू होता है'। अपहरण संस्कृति के दुरुह बीहड़ो से साक्षात्कार करता संजीव का जंगल अपने भीतर अनेक ऐसी पगडंडियों को खोलता और बंद करता है जिनके सहारे आप पाठ में प्रवेश कर सकते हैं और जो आपको इस टैक्सट में उलझाए रख सकतीं हैं।
उपन्यास की कथावस्तु में हम पुलिस और डाकू के परस्पर विरोधी रुपकों के सहारे प्रवेश करते हैं परंतु शीघ्र ही अहसास होता है कि पुलिस और डाकू दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, इनकी संस्कृतियां कुछ इस कदर समानता लिए हुए है कि 'बिसराम बहू' भी यह नहीं बता पाती है कि उसका बलात्कार करने वाला कौन है- 'पुलिस डाकू डाकू पुलिस पुलिस डाकू  खाकी वाला इसी प्रकार हम पाते हैं कि जंगल न मात्र हर मोड़ पर नए अंधेरों और नई संभावनाओं को पाठक के समक्ष प्रकट करता है वरन ऐसा करते हुए यह नई जगहों का अतिक्रमण भी कर रहा होता है।'हम सभी अपने-अपने स्तर पर इस जंगल से लड़ने चलते हैं और एक दिन पाते हैं कि जंगल खुद हमारे अंदर उगा आ रहा है।'
उपन्यास में एक ओर कुमार है- एक ईमानदार, मध्य वर्गीय प्रगतिशील परंतु महत्वाकांक्षी पुलिस उप अधीक्षक जिसकी पोस्टिंग आपरेशन ब्लैक पाइथन (जिसे गांव वाले डाकू - मारू हल्ला कहते हैं) के लिए पश्चिमी चंपारण में हुई है। दूसरी ओर है काली। स्कूल में पढ़ाई-लिखाई किया हुआ थारु-काली-गरीबी, बेगारी, हर पग पर अपमान सहता, डाकुओं की बेगारी और इसी कारण से पुलिस के जुलमों से टूट चुके परिवार के एक सदस्य है। काली के माध्यम से डाकू बनने की पूरी प्रक्रया की मध्यवर्गीय दास्तान सामने आती है। काली डाकू की आदर्श छवि प्रस्तुत करता है। बचपन का शर्मीला 'ब्याह हुआ तो कोहवर के जुए में हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा, जीत गई एक-एक कर सारी बाजियां, दुलहन। औरतें कहती- 'इसे तो भगवान ने भूल से मर्द बना दिया'। डाकू बनने के बाद भी कुमार साहब की दो किताबें हमेशा साथ लिए घूमता र्है विवेकानंद आश्रम की 'दिमाग पर कैसे काबू करें' और राहुल सांकृत्यायन की 'भागो नहीं दुनिया बदलो'। पर उपन्यास में जंगल धीरे-धीरे गहराता है। 'अब उसे किसी भी औरत को भोगने में कोई झिझक नहीं होती, मगर उसका अपना उसूल है, औरत किसी बड़ी जात की होनी चाहिए'। जंगल चरित्र बदल देता है। कुमार भी एन्काऊंटर करवाता है। रात में टोह लेते हुए मकरंदापुर बाली के यहां जाता है। परंतु, मध्यवर्गीय अपराधबोध उपन्यास के पन्नों में शब्दों के बीच जिंदा रहता है। कुमार के साथ भी और काली के भी। अंत होते उपन्यास में पाते हैं कि 'दो जोड़ी डबडबाई आंखों में कुछ चिलक रहा है। कोई जाना पहचाना अत्यंत आत्मीय रूप, स्पर्श और गंध और ध्वनियों का क्षितिज, जो जंगल में ओझल हो गया था।'
इस उपन्यास के बहुतेरे उप पाठ (सब टैक्सट) हैं। राजनीति का अपराधीकरण, डाकुओं का राजनीतिकरण, नशीले पदार्थोंं एवं हथियारों की तस्करी, सीमा के आर-पार फैला देह व्यापार, भय की संस्कृति और संस्कृति का भय (धर्म और जाति संरचनाओं के वृत्त) आदि सभी अपहरण की संस्कृति के विभिन्न सहभागी है। एक डाकू चुनाव जीतता है इसे चाहे तो मध्यवर्ग का पेसिमिज्म कहें, चाहें तो क्रूर यर्थाथ। काली जंगल से बाहर आ गया है इसे मध्यवर्गीय आशावाद कहे या फिर उपन्यास का अंत। किसी ने कहा है- 'साहित्य मूलतः मध्यवर्गीय साहित्य ही होता है।'
भाषा के स्तर पर जहां भी क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग हुआ है या जहां भी प्रथम पुरुष का प्रयोग हुआ है अत्यंत प्रभावशाली भाषायी वृत्तों को उत्पन्न करता है। उपन्यास शुरू करते हुए जादुई यथार्थ के प्रख्याता गैबरियल गार्सिया मार्केज के अपहरण संस्कृति पर ही लिखे गए 'न्यूज़ आफ किडनैपिंग' के इमेजों की जो आकांक्षा बनती है वह बहुत दूर तक नहीं चल पाती परंतु निश्चित ही जंगल होते समय में हाशिए पर रह गई संस्कृति के साथ एक अनूठा प्रयोग है संजीव का यह उपन्यास-जंगल जहां शुरू होता है।

उद्धरण: जंगल जहां शुरू होता है
छह फुट की गोरी, सुंदर स्वस्थ काया, आग-सी धधकती उम्र और कुछ कर गुजरने की तमन्ना- इस पर चुनौती जब डाकुओं से दो-दो हाथ करने की हो तो क्या कहने। सीधे फिल्मों या गाथाओं से निकलकर आ रहा था, मानो वहां। सामने पंथ आ गया था। जीप धीरे हुई और फुदक उठी। उसका मन भी फुदक रहा था। उसका आत्मविश्वास किसी भी आशंका, किसी भी बाधा के ऊपर मंडरा रहा था आज। एक मामूली मास्टर का लड़का है तो क्या हुआ  बिना किसी पैरवी के आ तो गया पुलिस उप-अधीक्षक की पोस्ट पर। आगे प्रोमोशन नहीं मिल पर रहा है, जातिवाद के चलते, नहीं, ठीक जातिवाद भी नहीं, पैरवी न होने के चलते । । । मगर कब तक रोकेंगे आखिर तो उन्हें उसकी सत्ता को स्वीकार करना पड़ा न पचीसों अफसरों में से इस ज़ोन से सिर्फ उसे चुना गया इस जोखिम भरे अभियान के लिए।
(पृष्ठ 7)

. . . यही तो असल ट्रेजेडी है, कुमार साहब, जो काम पुलिस और प्रशासन को करना चाहिए, उसे डाकू और दादा लोग कर रहे हैं। पब्लिक भी अब थाने कचहरी नहीं जाती, इन्हीं के पास जाती है। काली ने जो किया, उसका एक पहलू यह भी है। परशुराम के यहां भी मैं यही देखकर आ रहा हूं। और उन्होंने परशुराम का सारा वृत्तांत कह सुनाया। . . .
(पृष्ठ 250)

बहुत मयाविनी है वह हंसी। बच्चे को गोद में लेकर अंक से चिपका लेता है। वह गोरा, सुंदर, गदबदा, अबोध, अनाथ शिशु' मां के अभाव में किस दुनिया में पलेगा यह शिशु  'नहीं काली' कुमार बच्चे की निर्दोष आंखों में झांक रहा है।
'तो क्या मेरे पास . . .' खुद में ही उलझ रहा है काली।
इनकार में सिर हिल रहा है कुमार का, 'हम सभी अपने - अपने स्तर पर इस जंगल से लड़ने चलते हैं और एक दिन पाते हैं कि जंगल खुद हमारे अन्दर उगा आ रहा है।' अनुताप में बहुत धीरे से चकराते हुए गिर रहे हैं शब्द।
जगह-जगह ज्वालामुखी की आग के फव्वारे और विस्फोटों से धरती के बीच वह नन्हा बौद्ध भिक्षु जैसे कह रहा हो, अतीत तो गया, वर्तमान जा रहा है, बचा सको तो भविष्य को ही बचा ला- मैं तुम्हारा भविष्य हूं।
'इसे इस जंगल में गुम नहीं होने देंगे अपनी तरह, काली'
(पृष्ठ 286)
". . . . . काली का मन विगलित हो आया, 'सब कुछ तो कह दिया आपने, मेरे लिए तो कुछ छोड़ा ही नहीं' फिर वह तनिक अटकते हुए पूछता है, 'मगर इसे सौंपेंगे किसे '
'उस नूह को,' कुमार ने सिर उठाया, 'जो इस मायावी महाप्रलय में भी जो कुछ श्रेष्ठ है, सुंदर है, उसे बचा लेने की जिद ठाने बैठा है-मुरली पांडे' रूक-रूक कर शब्द रख रहा था कुमार जैसे पुष्प और अक्षत रख रहा हो श्रद्धा भाव से, काली के चेहरे की सारी मनहूसियत घुलने लगी है। दो जोड़ी डबडबाई आंखों में कुछ चिलक रहा है-कोई जाना-पहचाना, अत्यंत आत्मीय रूप, स्पर्श, गंध और ध्वनियों का क्षितिज, जो जंगल में ओझल हो गया था।अभी इनके आकार धुंध से बाहर निकल रहे हैं, धीरे-धीरे वे धुंध से बाहर आएंगे।

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