Monday, December 19, 2016

अनुपम मिश्र: एक श्रधांजलि

कुछ कृतियाँ ऐसी होती हैं कि मन पर एक पक्की लकीर खींच कर रख देती है. किताब के पन्ने, उसमें निहित जानकारियां, उसका भूगोल और उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि सब कुछ किताब पढ़ जाने के बहुत अरसे बाद तक भी आपके साथ चलते हैं. सरल शब्द बृहत् आकार ले लेते हैं. किताब का समाज आपको अपना ही समाज लगने लगता है. किताब के उत्स का भूगोल अपनी सीमाओं को लांघ कर आपके होने में रच बस जाता है. साथ ही साथ रहता है उसका लेखक. उसकी अदृश्यता में आप अपने होने के प्रति आश्वस्त बने रहते हैं. कि आपको यह लगता है कि वे हैं तो आपकी संवेदना बची हुई है. वे हैं तो आपके समय में कुछ ऐसा स्पर्श शेष है जो आदमी को आदमी बनाये हुए है. मशीन में तब्दील होने से, प्रगति, आधुनिकता और विज्ञान के अंधाधुंध गोलीबारी से एक तिनका भर प्राण तत्व को बचाए रखने का झूठा सच्चा सकून दिलाता एक सरल व्यक्तित्व.
अनुपम मिश्र कुछ ऐसी ही सख्सियत थे. वे आज हमारे बीच नहीं हैं.
मैं उनसे एक दो ही बार मिला. मिलना भी क्या महज दो चार पल की औपचारिकता. यह कहना अधिक बेहतर होगा कि एक दो बार ही उनको देखा. पर, उनकी उपस्थिति सदैब बनी रही तब से ही जब से उनकी किताबें पढ़ी. उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के मानसरोवर हॉस्टल में रहा करता था. सीनियर प्रभात रंजन इनके बारे में बताया करते. फिर उन्हीं के मार्फ़त अनुपम जी की दो किताबें पढ़ी: राजस्थान की रजत बूंदें और आज भी खड़े हैं तालाब. फिर, रहा न गया. प्रभात जी ही की मदद से इन दोनों किताबों को ख़रीदा. सहेज कर रखने के लिए, गाहे बगाहे किताबों को फिर फिर से पढने के लिए. पर, यह हो न सका. ऐसी किताबें भला यदि एक जगह टिक सकती तो फिर मैं ही कहाँ पढ़ पाता इन्हें. मैं भी तो पहली दफ़ा किसी और ही की किताब पढ़ी थी. खैर, न तो बढियां किताबें एक जगह टिक पाती है, न ही उनमें पसरा ज्ञान का लोक ही. और, न ही उनके लेखक. वे भी आज नहीं रहे.
अनुपम जी को अधिकतर लोग एक गांधीवादी पर्यावरणविद के रूप में जानते हैं. उन्होंने जिस सरलता से और जिस संवेदना से राजस्थानी परिवेश में, भाषा से समाज से, शिल्प और विज्ञान से जोड़कर जल और जीवन की बात कही वहाँ पर्यावरण महज एक सामजिक एक्टिविज्म  की एक कैटेगरी नहीं रह जाती. यह नहीं कि प्रयावरण पर व्याख्यान सुनना है तो हाल संख्या दो बटे चार पर जाएँ और अर्थव्यवस्था पर बहस के लिए हाल संख्या तीन गुणे नौ की तरफ मुड़े. अनुपम जी के लिए यह एक जीवन पद्धति रहा. एक ऐसी समग्र दृष्टि जहां आप पानी को भाषा से व्यवहार से जैसे ही अलग किये और चौबीस घंटे पाईप वाटर सप्लाई के महानगरीय आधुनिकता के छलाबे में जैसे ही पड़े वैसे ही आपका बंटाधार.
इसलिए पानी को केंद्र में रखने के बाद भी अनुपम जी के लिए यह न तो एक असंपृक्त ईकाई रही और न ही महज एक प्राकृतिक संसाधन.
बहुत सी बातें हैं कहने की और लिखने की. सबकुछ न तो लिखा जा सकता न ही कहा. हाँ जैसे उनकी किताबें थी. जिस तरह की सुरुचिपूर्ण सजाबट थी. जिस सरलता से कही गयी थी बेहद गूढ़ बातें. जिस गहरे दृश्यबोध का परिचय देती थी उनके किताबों की तस्वीरें, वो उन दिनों मेरे जैसे अबोध हिंदी पाठक के लिए बेहद आश्चर्य में डालने बाला भी था. पर, इसका यह कतई मतलब नहीं था कि उनका सौन्दर्य बोध प्रकाशन की, ज्ञान की राजनीति के प्रति ज़रा भी लापरवाह था. उन्होंने अपनी किताबों के कॉपी राइट अधिकार को मुक्त रखा. यह उन दिनों मेरे लिए एक सुखन जानकारी तो थी ही पर, आज के माहौल में भी सोचता हूँ तो यह एक बड़ी और समय से आगे की बात लगती है.
अनुपमजी की राजनीति अबोध भाव लिए थी. एकदम सरलता से सौम्यता से क्लिष्ट तार उनकी उलझी गांठें सुलझाकर बेबाकी से सामने रख देने बाली. करीब पंद्रह बीस साल तो हो ही गए होंगे उनको मसूर दाल और सामाजिक विकलांगता पर सुने हुए. दिल्ली विश्वविद्यालय में ही किसी ग्रुप ने बुलाया था. आज भी मृदु लहजे मे धीरे धीरे कहे गए उनका भाषण दिमाग में किसी डंके की भांति बज रहा है. बाद में, एक दफे मैं भी उनको पानी और शहर के ऊपर वक्तब्य देने के लिए आमंत्रित किया. वे मुझे नहीं जानते थे, पर स्वीकृति देने में जरा भी कोताही नहीं की. जिस माहौल में यह समायोजन था वह कई तरह से अभिजात्य होने का आभास भी देता था और इससे वे कुछ असहज भी रहे, ऐसा मेरा अनुमान है. यह बहुत लाजिमी भी था. वे अंग्रेजीदां के बजाय आम लोगों के बीच अधिक सहज रहा करते, ऐसा मेरा अनुमान है.  
अनुपम जी के बारे में यदा कडा कुछ पढने कुछ सुनने को भी मिला जिनसे चम्बल की बीहरों में जयप्रकाश नारायण के साथ उनके द्वारा डाकुओं के सामुहिक आत्म समर्पण की जमीन तैयार करने में उनकी भूमिका का कुछ पता चला. पर, एक विस्तृत रपट इस बाबत शायद लिखा जाना शेष ही है. वैसे भी वे संकोची स्वाभाव के व्यक्ति थे और लोग बाग भी इसे भूल ही गए हों, यह भी मुमकिन है.
खैर, जो भी हो, हमने आज समाज के बेहद शांत चित्त ऐसे स्तम्भ को खोया है जितने बड़े  सामजिक कार्य कर्ता थे उतने ही अद्भुत लेखक और वैसे ही कहनकार.  
उनका आज चले जाना बहुत से अर्थों में मेरे लिए गांधीवादी व्यक्तित्व के अंत का संकेत है. 

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