Friday, January 01, 2016

My three best readings in 2015:

1. Hala's Sattasai (Gatha Saptasati in Prakrit) Poems of Life and Love in Ancient India.

A classic socially far richer and denser a treatment of body, love, longing and desire than Vatsyayana's Kamasutra. Unlike kamasutra's urban, comparatively docile women and elitist cosmos of leisure and love here we have rural, peasant and relatively bold women having their own desires and agency. My best pick is the chapter on "The Go- Between". One of the verse says: " You always say:'Your business is my business,'
But today, dear go between,
You've taken it all too literally
And gone too far."
Thanks Vidyanand Jha sir for suggesting this book.


2.Brothers Bihari by Sankarshan Thakur

 A magical realist prose peeling layer after layer of strange yet familiar landscape of contemporary Bihar politics through lives of two politicians: Laloo Prasad Yadav and Nitish Kumar. In fact, a mind blowing account of these two Siamese twins of contemporary Bihar politics. Sharp analysis. Amazing marshalling of facts which create an alternate archive: a repository that assiduously collects not just tangible details about contemporary Bihar and her lineages but also converts whispers and body languages and personal experiences as reliable and crucial building blocks, something any contemporary history worth its salt will find difficult to ignore. A seductive language that caresses each curls and curves of the landscape called Bihar, a narrator who never misses an occasion to flirt with his memory and belongingness, and a razor sharp eye of an editor who is astute enough to know the weight of his words. Mesmerizing. Unputdownable. But, also a book any student of Bihar and contemporary Indian politics would love keep going back in search of little nuggets, to join the missing dots and to get insights only an 'insider' can offer.

3. Amitav Ghosh , Flood of Fire. Third and closing novel in Ibis trilogy. I liked the first, Sea of Poppy the most. Yet, this third shows the dexterity and dryness which constitute the terrain of this wonderful novel: the ruggedness of war itself. It is dry. It is flat. A form befitting its content.

Other temptations of 2016 which will remain with me for a long time:


1. Prabhat Ranjan,कोठागोई 



बहुत समय बीता, मदन गोपाल सिंह ने फिल्म स्टडीज का दो घंटे का क्लास पढ़ाया था. बहुत कुछ याद नहीं रह जाता ऐसे क्लासों का. लेकिन उनका क्लास जेहन में रहा. खासकर दो बातें, दो तरह के उदाहरण. अंग्रेजी के शिक्षक होने के साथ वे खुद एक उम्दा सूफी गायक हैं और सूफी संगीत के बहुत बड़े जानकार. वे हम लोगों को हिंदी फिलंम संगीत के ऊपर क्लास लेने के लिये बुलाये गये थे. उन्होनें दो मार्के की बातें बतायी. पहला, उनका अपना अनुभव जब उन्हें ए आर रहमान ने अपने स्टूडियो में सूफी संगीत की कुछ बारिकियों पर चर्चा के लिये बुलाया था. दूसरी बात उन्होनें संगीत के पिक्चराइजेसन, विजुअल स्ट्रकचर आदि को लेकर की.मसला था कि हिन्दी फिल्म गीत संगीत जब पर्दे पर आता है तो उसके विश्लेषण में किस तरह के मुद्दों पर ध्यान दिया जाय और उन्होने पाकीजा के 'इन्ही लोगों ने ले ली ना दुपट्टा मेरा' का उदाहरण रखा, एक बेमिसाल उद्दरण. उन्होने बताया कि इस गीत के दृश्यमय प्रस्तुति में हम एक अनोखे संरचना को पाते हैं. इस गीत में मुख्य फ्रेम में मीना कुमारी का नृत्य हो रहा है लेकिन यह मुख्य या फ्रंट उसी एक ही विशाल फ्रेम में पार्श्व के अनेक छोटे छोटे फ्रेमों के साथ हमारे आंख के सामने आता है. सिनेमा की भाषा में कहें तो mise en scene जो है वह यहां अनेक छोटे छोटे नृत्यों से बना है अलग अलग अटारियों पर अलग अलग थिरकने हो रहीं हैं. इस तरह के एरेंज्मेंट को मदन गोपाल सिंह ने सेल्युलर नाम दिया. यहां अलग अलग फ्रेम्स अपने में स्वायत्त रूप से कुछ उसी तरह कार्यरत हैं जिसतरह मानव शरीर में अनेकों कोशिकाये (cells) स्वायत्त रूप में कार्य करते हैं ये कोशिकाएं समग्रता में मानव देह बनाते हैं जैसे इस सिनेमा दृश्य में अनेकों हो रहे नृत्य के फ्रेमों से मिलकर समग्र फ्रेम बना. यहां फ्रेम, सॉट और सीन की बात नहीं है यहां एक ही फ्रेम मे हो रही गतिविधियों की बात है, भीतर के विविधता की बात है लेकिन फिर भी एक अद्भुत किस्म के सामंजस्य की सिंक की बात है( देखें नीचे दिया गया विडियो).
सिनेमा स्टडीज के उस क्लास को गुजरे कई साल हो गये. पाकीजा के लखनऊ का वह लैंडस्केप और उसके दृश्यांकन का सेल्युलर स्ट्रकचर अभी फिर से जेहन में आ गया. कारण प्रभात रंजन की हाल में आयी 'कोठागोई(चतुर्भुज स्थान के किस्से) है. चतुर्भुज स्थान के एक फ्रेम के भीतर अनेक फ्रेम, अनेक किस्से सब एक दूसरे से जुडे हुए लेकिन हर कोई अपनी स्वायत्ता में नाचता हुआ.
उत्तर बिहार खासतौर पर मुजफ्फरपुर और उससे सटे हुए नेपाल के सीमावर्ती इलाके के सन् अस्सी और नब्बे के दशकों में आती बदलावों को प्रभातजी पहले भी अपनी कहानियों (जानकीपूल आदि) में शुक्ष्मता और अनोखे ढंग से पिरोते रहे हैं. यथार्थता अपने पूरे जादुई अंदाज में पाठकों के सामने कुछ इस तरह आती है कि सच और झुठ का फ्रक झीना हो चलता है. कोठागोई भी कुछ इसी तरह की है. लेकिन यहां कुछ सूत्र भी हैं उस्ताद गौहर खान हैं, एक शोधार्थी है, कथाकार के बचपन की यादें हैंऔर चतुर्भुज स्थान एक बदनाम वस्ती के गिरह खुलते जाते हैं एक के बाद एक. कथा चलती रहती है मानो कोई सुना रहा हो और हम पढ़ नही रहे हों. मानो हन भी 'कनरसिया' हो गये हों. इस वस्ती के बनने, बसने से लेकर आज के फेसबूक पर कथाकार को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजती एक किरदार तक का फासला तय करती कहानियॉं. अपने विस्तार से मनोहर श्याम जोशी के फलक को याद दिलाती कहानियॉं. लेकिन सामाजिक समय के बदलाव को कथा में पिरोने के मामले में यहां एक बेहद संसलिष्ट औरत परतदार मामला रहा. कुमाऊं और तिरहुत बिहार में अंतर भी तो बहुत भारी है. और जिस खुबी से प्रभात जी ने बाबुसाहबों जमिंदारों की बदलती तस्बीर खिंची है वह बेमिशाल है अपनी स्थानियता के तमाम समृधि में. यहां अनेक चरित्र हैं उनकी कहानियॉं है जिसमें इस जगह, इस शहर और इस क्षेत्र का इतिहास, इसकी बदलती लोक संसकृति और समाज है. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण और मुख्य गानेवालियां हैं, कनरसिये हैं और गीत संगीत के बदलते आयाम के ऊपर की गई बारीक ओबजर्वेशन्स हैं. बैठकर सुने बाले संगीत की दुनिया खड़े होकर सुनने की दुनिया में बदल जाती है. इमरजेंसी की बात है, आदाब तहजीब की बात है. मुजफ्फरपुर और लंदन न्यूयोर्क से तथा पटियाला, लखनऊ और बनारस से जुड़े संबंध की बात है. तिरहुत और नेपाल तक फैले सुरों के दस्तक की बात है. यहां कुछ भी स्थिर नहीं. कुछ भी बेसूरा नहीं.
लिखने को अब भी बहुत कुछ है इस कोठागोई के ऊपर लेकिन मोबाइल पर टाइप करते थक रहा हूं. अंत में चार बातें, काले टीके की तरह:
पहली, प्रभातजी के पाठकों के लिये यह नई बात मही लगेगी कि प्रभाजी अपनी कहानियों मे एक किस्म की जल्दबाजी में दिखते हैं. कहानी लिख दी फिर एडिटींग किस बात की? इस मामले में वे मनोहर श्याम जोशी और मार्केज, दो नाम जिसका वे अक्सर जिक्र करते हैं, से बिल्कुल अलग खड़े दिखते हैं. जहां भी शव्दों में कमी बरतते हैं वहां बेजोड़ मिलते हैं. शैली की बात आयी तो कोठागोई में यदि रेणू जैसे एडिटिंग के प्रयोग होते तो बात कुछ और होती. रेणु दूसरे से सुनी बातों के लिये या डायरेक्ट स्पीच के लिये सिंग्ल इनवर्टेड कोमों का प्रयोग किया करते. कहानी उपन्यास सब में अपने शव्द और दूसरे से ली गई बातों के बीच एक पतली रेखा बनी रहती. पर, हर एक कथाकार की अपनी शैली भी तो होती है.
दूसरी बात, यहां जातिगत घरातल बाबुसाहबों का है. क्या लालू प्रसाद और अस्सी के दशक के बाद के बदले जातिय धरातल से चतुर्भुज स्थान अछुता रहा. यह भी एक समाज शास्त्रीय सवाल है और जाहिर है कि हम एक दिलचस्प किस्से की बात कर रहे हैं. जिसे इतिहास लिखना है वो उठाये सवालों को. पर उम्मीद तो बंध ही जाती है. हसरतों का क्या करें? लिखा ही कुछ ऐसा है.
तृतिय, और यह कतई मेरा नहीं. मैं भी सकते में आ गया जब मेरे ही घर में पता चला कि कोठागोई तो पुरूषों की बाते हैं. गानेबालियों , उनकी सबलता को जैसे पुरूषप्रधान समाज ने देखा. अब इसका क्या करें? हम नारीवादी युग में जो हैं.
चौथा, फिर कभी...
अब देखिये पाकीजा के इन्ही लोगो ने का लिंक भी प्स्ट नहीं हो रहा. फिर से एडिट भी करना होगा पर फेसबुक पर तो चलेगा... लिंक कल मिलेगा. तब तक फर्स्ट कट
https://www.youtube.com/watch?v=lEm7GwR3hvM

2. रवीश कुमार, इश्क में शहर होना.लप्रेक: लघु प्रेम कथा.
"शव्द पपड़ी की तरह उड़ रहे हैं" (लप्रेक: रवीश कुमार)
चित्र (स्केच) और शव्द की जुगल बंदी लिए लप्रेक हिंदी साहित्य के फलक पर हाल के दशकों में होने बाला एक अनूठा प्रयोग है. विक्रम नायक के रेखाचित्रों में ताजगी है और नजर को अपनी तरफ बनाए रखने का सामर्थ्य. रवीश जितने अच्छे टी.वी. एंकर है उससे अधिक अच्छे लेखक. भावुकता, नोस्टेलजिया और सेंसुअलीटी का अद्भुत मेल है यहाँ. निश्चित तौर पर लप्रेक हिंदी जगत में अपने फॉर्म के लिए याद किया जाएगा, प्रोज, पोएट्री और प्रोज-पोएट्री से इतर यह एक नयी शैली है. फेसबुक के जमाने का साहित्य.

3. Amitava Kumar, A Matter of Rats.
A fascinating prose about Musahars of Bihar, growing up in Patna; part memoir, part anthropology, part fiction.

Waiting to read:

Dipesh Chakrabarty, The Calling of History: Sir Jadunath Sarkar and His Empire of Truth
Shahid Amin
, Conquest and Community: The Afterlife of Warrior Saint Ghazi Miyan
Girindranath Jha,
इश्क में माटी सोना.लप्रेक: लघु प्रेम कथा.



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