कहाबत है, "खाए भीम हगे शकुनी" भीम ने तपस्या कर यह वरदान मांगा कि मैं जो कुछ भी खाऊँ वह पच जाये लेकिन सुबह अपने मूल रुप में शकुनी के मलद्वार से निकले। तथास्तु! फिर क्या था भीम भिन्न भिन्न आकार-प्रकार के पदार्थों को खाने लगे और शकुनी के कराहने का कोई अंत न था। यही हाल अभी है। गलती पर गलती कोई करे और सुलह करने संभालने के लिये बेचारे प्रणव दा को आगे कर दिया जाता है। राजा और कनीमुजी को संरक्षण कहीं और से मिला लेकिन जब संकट गहराया तो प्रणव दा चेन्नई भेजे गये, कोलकत्ता भेजे गये।
अर्जुन सिंह जो अस्सी के दशक में कर रहे थे अब वह काम प्रणव दा के कंधे पर आ गया है। लेकिन पुरस्कार क्या मिलेगा? पहली बार जब प्रधान मँत्री बनने की बात आयी तब उन्ही से घोषणा करबाया कि मनमोहन देश के कर्ता होंगे। ये तो वही बात हुई कि जिससे जिंदगी भर ईश्क किया उसी को दोस्त के लिये प्रपोज करना पड़ा। दूसरी बार तो किसी ने पूछा तक नही। अगली दफा तो राहुल के लिये सुरक्षित है।
फिर प्रणव दा की उम्र भी तो हो चली है। कबतक इतना बोझ उठाते रहेंगे। मनमोहन पहले ठोक पीट कर चिट्ठी लिख देते हैं फिर कहते हैं कि सुलह करो लेकिन मेरे लिखे लकीर की मर्यादा रखना भी तुम्हारा ही काम है। क्या हाल बना रक्खा है मेरे प्रणव दा का!
ha ha ha ha ....bahut badhiya.
ReplyDeletewell said sir...!!!
ReplyDeleteनागार्जुन का लिखा एक शब्द है- दुख हरण टिकिया। हालांकि उन्होंने इसका इस्तेमाल अनशन और दिल्ली के परिप्रेक्ष्य में किया था लेकिन यदि मौजूदा हालात में राजनीतिक घटनाक्रमों और अंग्रेजी शब्द मैनेज और अपनी बोली बानी में जुगाड़ कहूं तो इस शब्द का इस्तेमाल सबसे अधिक प्रणब दा पर बैठता है। इंदिरा युगीन इस टिकिया का इस्तेमाल हमेशा आपात स्थिति में किया जाता है। कबीर भी कह गए हैं- अनुभव गावै सो गीता..। दादा का अनुभव ही उन्हें हींग बनाता है। एक बार उनको ७ रेसकोर्स रोड में रहने दिया जाना चाहिए। मैडम और युवा बाबा को इस पर सोच विचार करना चाहिए। आखिर दादा की निजाम के प्रति प्रतिबद्धता जगजाहिर है। अमीर खुसरो से उधार- "तोरी सूरत के बलिहारी, निजाम, तोरी सूरत के बलिहारी. सब सखियन में चुनर मेरी मैली... " पार्टी निजाम के प्रति उनकी निष्टा को सलाम..
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