तस्वीर का पंक्टम
एक तस्वीर है। इसकी जमीन पर कुछ पेड् हैँ और उन पर टीन के छोटे-छोटे प्लेट लगे हुए हैँ। यह कुछ एसा मजमा पेश करता है कि मानो ये पेड् इन्ही प्लेटों के लिए खडे हों, मानो ये प्लेटें इन्ही पेडों के लिए बने हों। यह दूसरी बात कुछ अधिक यर्थाथता का बोध देती है। लेकिन, यकिन मानिए, इस तस्वीर में इन पेडों का वजूद इन प्लेटों के साथ अनिवार्यत: संबद्ध है वरना ये तस्वीर ही शायद नही ली जाती और अगर तस्वीर नही ली जाती तो हम और आप बात ही नही कर रहे होते। यह तस्वीरों के हस्तक्षेप से हो रहा संवाद है। यह एक तस्वीर के चंद लम्हों की कहानी है।
इस तस्वीर में, उस पेड् पर लटके टीन प्लेटों पर अंग्रेजी के बड्े अक्षरों में लिखा है-' एवार्सन'। नीचे एक फोन नंवर दिया गया है, एक 'समस्या' के समाधान के लिए। अपनी आवाज को पहुँचाने के लिए और किसी आवाज को दुनिया में आने से पहले ही दबा देने के लिए।
इस तस्वीर के जरिए हम एवार्सन के आसपास बुन रहे ताने-बानों, और उनके विमर्शों की बात कर सकते हैं। राज्य-तंत्र और राजसत्ता, कानुन की सत्ता, इस कानुन के पुरुषवादी स्वरुप और उसकी नारीवादी व्याख्याओं में शहर की इच्छाओं, डरों और क्रूर यर्थाथों कि दुनिया में इस सामान्य से लगने वाले तस्वीर के सहारे प्रवेश कर सकते हैं। वासना और शहर की खौफनाक हकीकत से भी बात आगे बढाई जा सकती है। पर यहां मेरा सरोकार फिलहाल कुछ और ही है। इस तस्वीर में अपनी ही आँखों को ढूंढा जा रहा है-इस तस्वीर को देखते हुए, इस तस्वीर में भटकते हुए…
अपनी आँखों की तलाश कहां से शुरु की जाए? मशहूर रोलां बार्थस् के 'पंक्टम ' को ढुंढता हूँ। 'पंक्टम अर्थात् वह बिन्दु जिस पर नजर ठहरती है और उसी की होकर रह जाती है। जो किसी तस्वीर के फ्रेम को परिभाषित करती है,स्वरुपित करतीहै। जो बिन्दु आँखों को कैद करती है, जिसमे नजर बन्द हो जाता है और जिसके सहारे आप तस्वीर के पाठ की दुनिया में प्रवेश करते हैं।
एस तस्वीर का पंक्टम इसके फ्रेम के भीतर नही बरन् बाहर है। यह इस फ्रेममें अनुपस्थित जितना नही है उससे अधिक अदृश्य है। यह पंक्टम तस्वीर के कैपसन के जरिए इसके फ्रेममेंअपने होने का अहसास दिला रहा है। यह पंक्टम दौलतराम कालेज की वह दीवार है जिसके आगे यह पेड् खडा है, जिस पर तीन के प्लेट में एक इबारत है। एवार्सन की इस पंक्टम के बनने की चर्चा यहां कुछ अप्रासांगिक नही होगा।
यदि जूम आउट करें तो यह चित्र दिल्ली विश्वविद्यालय का है। दिल्ली विश्वविद्यालय में कई सड्कों के नाम हैं। सौभाग्य या दुर्भाग्यवश इस सड्क का , जिसपर एवार्सन वाले ये पेड् हैं, का कोई नाम नही है। यदि इसका कोई नाम हो भी तो वह प्रचलित नही है। खैर,नाम के अभाव में एस सड्क, जिसपर हमारे तस्वीर का पंक्टम मौजूद है, का ठोस ज्योग्राफिया बयान लाजिमी हो जाता है। यह सड्क रिंग रोड, जो दिल्ली के मुख्य सडकों में से एक है, से ही निकलती है और मानसरोवर छात्रावास, खालसा कालेज, मिराण्डा हाउस, आर्टस् फैकल्टी और दौलतराम कालेज होते हुए कमलानगर, रुपनगर और शक्तिनगर तक जाती है। कुछ और भी जगहों को शामिल किया जा सकता है लेकिन फिलहाल उन्हें रहने दें। यहाँ गौरतलब हो कि तस्वीर का पेड् कोई अकेला पेड् नही है जिसपर टीन की यह पट्टी लगी है। एवार्सनकी पट्ट बाले पेड् खालसा कालेज से ही शुरु हो जाते हैं। और जब भी इस सड्क पर आप शहर से परेशान होकर इन पेडों की छाह की ओर, इनकी हरियाली की ओर नजर दौराएंगे आपको इनकी तना पर एवार्सन की पट्टी मिल ही जाएगी। दिल्ली विश्वविद्यालय की यह सड्क जो अपनी 'रंगीनी' के कारण खासी तादाद में शहर के मजनुओं का सैरगाह, उनका ख्वावगाह है और इस कारण से कई महत्वपूर्ण रुपों में इस तस्वीर के पाठों को स्वरुपित करता है।
यह पंक्टम परेशान करता है। तस्वीर के पाठों एवं इनके बहुतेरे 'अन्य' को विस्थापित करता है। लेकिन कुछ सवालात हैं जिनसे रुबरु हुए बगैर पाठों के इन बहुतेरे अन्य का विस्थापन नही पढा जा सकता है। सबसे पहले, दिल्ली विश्वविद्यालय की यह सड्क, ग्लर्स् कालेज की यह दीवार ही क्यूँ? इन टीन प्लेटों को इस सड्क पर लगाने वाले, ग्लर्स कालेज के सामने (बहुत चुपके से) प्रदर्शित करनेवालों के बाजारीय हथकँडों में किस प्रकार के मिथकों का बोलबाला है। इस सड्क, इस कालेज के बारे में वे कौन सी पुरुषवादी सोच काम कर रही है जिसने इस सड्क को, इस कालेज को इस तस्वीर की 'सबसे नजदीकी पृष्टभूमि' प्रदान की? एवार्सन करने वालों के द्वारा इस जगह का चुनाव क्योँ?
इस 'क्योँ के साथ कई प्रकार की समस्याएँ जुडी हुई है। इस 'क्योँ' के साथ हम कितनी दूर तक जा सकते हैं?
संस्कृति , खासकर जनसंस्कृति के अध्ययन में अक्सर बिच मझधार में ही यह 'क्योँ ' हमारा साथ छोड्कर बोरिया बिस्तर समेट भाग खडा होता है। जिस तरह के दृश्य जगहों की बात हम करना चाहते हैं उनके पीछे के व्यक्तियों खि ठीक-ठीक मंशा जानना असंभव है और मेरी माने तो सैद्धांतिंक रुप से गैर-जरुरी भी। यह प्रयास असंभव इसलिये नही कि आप उन तक नही पहुँच सकते या फिर वो अपनी मंशा आपसे साझा करने के लिये तैयार नही होंगे। समस्या तो तब खडी होती है जब आप उस 'कहे गये' मंशा को पढने, व्याख्यायित करने बैठते हैं और पाते हैं कि जो कहा गया है वह महज चेतन मानस कि एक अभिव्यक्ति मात्र है। यह अहसास होता है कि इस व्यक्त चेतन के पीछे का अव्यक्त अचेतन अधिक महत्वपूर्ण होगा। और फिर, आप पुरे पाठ में अकेले रह जाते हैं- अपनी ही कल्पनाओँ के साथ, अपने ही विम्बोँ में उलझे हुए।
एक दुसरी भी समस्या है, थोडी अधिक जटिल। यह पाठ के लेखक के बहुवचन होने कि समस्या से उपजता है। इस समस्या में लेखक स्वयं ही विस्थापित होता चलता है। जिसने ये टीन प्लेट लगवायी क्या उसे ही इस पाठ का लेखक माना जाय? क्या उस संस्कृति और उन मिथकों को इनका लेखक नही माना जाय जिसने इस तख्ती लगवाने वाले की मनोबृति को प्रभाबित करते हुए उसे इस जगह पर टीन प्लेटें लगवाने हेतु प्रेरित किया? क्या हम ही इस पाठ के लेखक नही हैँ जो इस अदने से तस्वीर के बहुतेरे संभाब्य पाठों में से महज एक खास हिस्से को तरजीह दे रहे हैं? या फिर आप ही क्योँ नही जो अपने पठन के दौरान अपने अनुभवोँ और ज्ञान के द्वारा पुरे पाठ को परिमार्जित करते चल रहे हैँ? और भी बहुतेरे सवाल हैं जो लेखक के कटघरे में खडे होने से उपजते हैं। और…लेखक स्वयंही एक पाठ हो जाता है। लेकिन, अभी इसे भी रहने दें। यहां उस जनसंस्कृति, शहर के उस जनस्थान की ओर लौटें जिसमे तस्वीरका यह विम्ब, इसके बनते बिगडते अक्स एवं इस अक्स में साँस लेता शहर हमारे आँखों से टकराता है। यह देह होता शहर है और है, देह पर फिसलती कुछ जोडी जुडी आखें। शहर और देह का रिस्ता बहुत पुराना न भी हो लेकिन नारीवादी विमर्श के लिए कुछ नया भी नही है।
थोडी देर के लिये इस पँक्टम से अपना ध्यान हटाकर वापस इस तस्वीर के उपस्थित फ्रेम की ओर लौटे तो पाते हैं कि इस दृश्य के मूल में एक देह है-अजन्मा, अनदेखा लेकिन अपरिचित अनजाना नही। इस तस्वीर के सारे दावे/प्रतिदावे इसी देह पर हो रहे हैं। इस अजन्मे देह के अस्तित्व को मिटाने का आहवान है यह टीन-प्लेट परन्तु, इस देह के अस्तित्व को हम कहां खोजें?
निश्चित तौर पर इस देह की अहमिता जितनी इसको धारण/परित्याग करने वाले गर्भ पर निर्भर है उतनी ही यह डर व असुरक्षा की एक सामान्य शहरी मनोबृति में भी। इसप्रकार, हम पाते हैं कि दावे/प्रतिदावों का स्थान उस अजन्मे गर्भ से बदलकर उस गर्भ धारण करनेवाली नारी देह पर आ जाता है। इसका मतलब यह कती नही है कि कोख और उसको धारण करने वाली देह, दो भिन्न ईकाईयां हैं। यहां इन्हे महज संवाद और विमर्श के बहाने दो दैहिक जगहों के रुप में प्रयोग किया गया है जो एक दुसरे में उपस्थित होते हुए भी भिन्न दृष्टिकोण की मांग करते दिखते हैं।
एक नजर से देखें तो एवार्सनकी यह टीन-प्लेट इस देह को मुक्त करती है। गर्भाधान भारत में अनिवार्यत: एक सामाजिक बंधन की पूर्वकल्पना करता है और अपवादों को छोड् दें तो कोख द्वारा मातृ-देह पर की जा रही दावों की वैधता वस्तुत: विवाह की सामाजिक प्रक्रिया के माध्यम से ही होती है। दुसरे शब्दों में कहें तोकोख मातृ-देह पर दावे पेशकर उस देह को औपनिवेशिक बनाता है। उस देह को अधिकृत कर लेता है (भले ही यह औपनिवेशिकरण, यह अधिकार प्यार/मातृत्व की सबसे मूल, सबसे स्फूट और सबसे मूक अभिव्यक्ति ही क्योँ न हो)। एवार्सन का यह प्रचार मातृ-देह को अपने ही कोख के द्वारा किए गये अधिकार को खत्म करता है। गर्भाधान के साथ संबद्ध सामाजिक बंधनों को तोरता हुआ, यह फ्री-सेक्स के साथ जुडे उस थोडे से भय को भी खत्म करता है जो एक नारी देह तमाम गर्भनिरोधक तरीकों और कंडोम के उपयोग के बाद भी अपने साथ ढोती है। अब यह देह उस सामाजिक भय से मुक्त होकर दुसरे देह से मिल सकती है, जो एक अजन्मे, अनजाने और अनचाहे (बच्चे की) देह की संभावना का प्रतिफलन है।
लेकिन यह तो महज एक स्तर है। इस स्तर के ठीक नीचे देह का एक बिल्कुल भिन्न और आभासी तौर पर कहैं तो ठीक बिपरीत रुप नजर आता है। इस दूसरे स्तर पर यही टीन-प्लेत और इनकी यही इबारत, देह को बिबाह के सामाजिक बंधनों से मुक्त करने के बजाय सामाजिक संस्था के रुप में बिबाह की उपयोगिता और देह की इस संस्था पर निर्भरता के मुद्दे को पुन: आरोपित करती है। यह विज्ञापन नारी देह को उसके कोख की भय से तो मुक्त करता है लेकिन उस भय के पीछे के मूल कारण सामाजिक भय को अपने विमर्श के केन्द्र में बनाए रखता है। यह पोषता है इस भय को। यह पहले नारी देह पर सामाजिक वक्तव्यों को स्थापित करता है-शादी गर्भाधान की अनिवार्य पूर्वकल्पना है ( या फिर कुछ दुसरे तरह के सामाजिक-आर्थिक भय जो शहरी जीवन की गतिशीलता और गर्भाधान के कारण होती अधिक व्यवहारिक परेशानियों द्वारा उत्पन्न होता है)। फिर यह नारी देह को उस प्रक्रिया का निदान बताता है जिसके कारण यह भय आरोपित होता है। लेकिन एसा करते हुए यह कभी उस भय का निदान नही करता है बल्कि यह भय को और अधिक व्यापक बनाता है।नारी देह को हमेशा सामाजिक मान्यताओं के भय के आगोश में रखता है। यह आगोश और इस आगोश का अहसास इस टीन-प्लेट को देखते हुए जागृत हो उठती है। पहला संदेश दुवारा लोटकर आता है- फ्री-सेक्स की संसकृति में गर्भाधान सबसे बडी सामाजिक समस्या है और एवार्सन हि इसका एकमात्र उपाय है। इस टीन-प्लेट से नजरें फिसलती हुई नारी देह पर अटकती है उसे असुरक्षित, भयाक्रांत करते हुए कमजोर बनाती चलती है।
शहर द्वारा, इसकी दृष्टि के द्वारा नारीदेह पर कब्जा करने का यह महज एक हथकंडा है। शहर के नजर के पास ऐसे हथकँडों की एक पूरी श्रृखला है जिसके द्वारा शहर और इसके पुरुषवादी नजरों का राज चलता है। यह नारी देहों पर होता दस्तदराजी है: शहर के देह पर, इबारतों कि नारी देहों पर पुरुषवादी नजरों की। "दस्त=हाथ, दराज=लम्बा करके छुलाना, काफी हद तक अश्लील तरीके से जुल्म; अत्याचार; दुस्साहस ; गुस्ताखी; मार पीट”।1 इतिहासकार शाहिद अमीन /ज्ञान पांडे ने औपनिवेशिक काल के अंग्रेज परस्त उर्दु अखवार के 1921 में छपी एक रपत का हवाला देते हुए इस शब्द का इस्तेमाल किया है। औपनिवेशिक देह तो अब रहा नही लेकिन दस्तदराजी तो शायद हमेशा ही कायम रहेगी।
यह एक ऐसा उदाहरण है जहां जनस्थान की रचना, महिलावादी स्वरों को शांत कर नही हो रही है। कुछ गहरा और बडे नाजूक हाथों से पक रहा है। पुरुषवादी शक्तियां उभरकर मैदान में आमने सामने नही हैं। यह खेल तो महिलाओं की उपस्थिती से ही हो रहा है। शर्त बस इतनी कि देखने वला, मजा लेने वला हमेशा पुरुश देह हि है। दस्तदराजीके नये नये नुस्खे ईजाद करता-देह का शहर, शहर के देह…देह में ढलती नजर।
सदन झा (सदन झा और प्रभास रंजन, शहर के निशान)।
सदन आपके ब्लॉग का पता पा अच्छा लगा लेकिन टेक्स्ट के रंग व टेम्पलेट के कारण पढ़ पाना सम्भव नहीं हो पा रहा है क्या आप दृश्यता बढ़ाने के लिए कुछ कर पाएंगे ?
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