Friday, October 30, 2015

दरभंगा, मैथिली और हिंदी: सफर की शुरुआत

मेरा जन्म बिहार के मधुबनी जिला के एक गॉंव सरिसब पाही में हुआ लेकिन बचपन दरभंगा में बीता. उन दिनों दरभंगा मेरे लिये शहर था.  बहुत बाद में जब अपने उस शहर से दूर जाता गया और जब वह सपने में धीरे धीरे अधिकाधिक आने लगा तो उस दरभंगा के लिये  एक छोटे से शहर की अभिव्यक्ति दिमाग में घर कर गयी. पिता प्रोफेसर हुआ करते थे और घर में खुब सारी किताबें हुआ करती थी. अंग्रेजी की दो अखबारें आया करती: एक पटना से प्रकाशित और दूसरी दिल्ली से एक दिन की देरी से आने बाला टाइम्स ऑफ इंडिया. पत्रिका में इलस्ट्रेटेड विकली आया करता और साथ में रिडर्स डायजेस्ट. हिंदी साहित्य की किताबें पिताजी के उस घर में नहीं हुआ करती, मैथिली की उपस्थिती भी छापे की अक्षरों के रूप में होने का याद नहीं ही आता है.लेकिन घर में मैथिली के अतिरिक्त और कोई दूसरी भाषा बोली नहीं जाती.उस लड़कपन के दौर में हिंदी बोलने को  उसी कदर अभिजात्यता की अभिव्यक्ति समझा जाता जैसे बाद के मेरे किशोरवय में अंग्रेजी बोलने को.
घर से भाई बहन स्कूल जाया करते थे. मैं सबसे छोटा था और स्कूल जाने को किसी विशेषाधिकार की मानिंद मानता था. जिद बढ़ने लगी तो बहन अपने साथ मुझे भी स्कूल ले जाने को तैयार हो गयी. अगली जनवरी में मेरे भी विधीवत दाखिले की बात हो गयी. तब तक धाख छुड़ाने के लिये मुझे भेजा जाने लगा. मैं उत्साह से नयी दुनिया जाता,लड़कों के बैंचों की कतार में सबसे पीछे के खाली बैंच पर चुपचाप बैठे टुकुड़ टुकुड़ समय गुजारा करता. घर आकर ढ़ेर सी कहानियां हुआ करती, सबको पड़ेसान करने के लिये. एक हसीन कहानी तो साथ रही अब तलक, उन दिनों की खुबसूरत याद के साथ. पर, उसकी खुबसूरती लिखने की इजाजत नहीं देती. फिर कभी.
पांच साल से तीन महीने पहले प्रेपरेटरी बी में मेरा दाखिला हो गया. पब्लिक स्कूल में. एक ही पब्लिक स्कूल थे शहर में उन दिनों. लहेरिया सराय में 'बड़े घरों के बच्चों' के लिये एक अंग्रेजी स्कूल जरूर था. बाद में जब पब्लिक स्कूलों की संख्या बढ़ी और हमारे स्कूल की एक और शाखा शहर से कुछ दूर बसते नये मोहल्ले बेला में खुली तो हमारे स्कूल को पब्लिक स्कूल, लालबाग या पानी टंकी की पहचान से भी नवाजा गया. पर, वह बाद की बात है.
अभी तो स्कूल में दाखिला से पहले घर में चर्चा का एक कोना यह भी था कि स्कूल में मैथिली से काम नहीं चलेगा. वहां केवल और केवल हिंदी ही बोलना होगा नहीं तो नाम काट दिया जायेगा. .
स्कूल जाने लगा और हिंदी कैसे बोलने लगा यह स्मृति का अंग कभी नहीं बन पाया. इतना तो याद है कि मैथिली से हिंदी बोलने के सफर में किसी मुश्किलात का कभी सामना नहीं करना पड़ा. यह स्वत: ही होगया. वैसे जहां तक हिंदी भाषा लिखने और सीखने की बात है तो वहां कई गतिरोध रहे हैं. आज भी मुझे पूरा अहसास है कि मुझे लिखना नहीं आता. वर्तनी और व्याकरण तो खैर माशा अल्लाह! ह्रस्व इ और दीर्घ ई , उ और ऊ, स्त्रीलिंग और पुलिंग सभी विभाग मेरे लिये युद्ध के मैदान ही अब तक हैं और मैं शुरू से एक थके हारे सिपाही की तरह ही इस मैदान पर रहा. अब भी स्थिती कुछ बदली नहीं. हमेशा ही साहित्य के पर्चे में अंक बहुत कम आये. जब दिल्ली आया और कुछेक अभिजात्यों के साथ काम करने लगा तो वो मेरे श के स कहने का बहुत माखौल भी उड़ाया करते.
खैर, वो मेरी जिंदगी के बहुत शुरूआती दिन थे..  उन दिनों मेरे लिये मैथिली घर परिवार की, दुकान और सड़क की भाषा थी, अंग्रेजी सूचना और ग्यान विग्यान की, और हिंदी शिक्षा एवं स्कूल की भाषा हुआ करती. अभी मेरे लिये एस सी बेदी के साल लपेटे फोटो की मनोज पाकेट बुक्स और बेताल, मैंनड्रेक, बहादुर और फ्लैस गौर्डन जैसे नायकों के इंद्रजाल कॉमिक्स की दुनिया का सफर शेष था...हां,संभव है कि पराग, नंदन, लोटपोट और चंदा मामा बहुत दूर नहीं रहे हों. बहुत बाद, जब थोड़ा बड़ा हो गया तो एक दिन मैने पिताजी से पुछा: हमलोग भी तो मिडिल क्लास ही हुए न?  उन्होनें बहुत स्थिर स्वर में कहा, नहीं लोअर मिडिल क्लास.

Wednesday, October 21, 2015

दरभंगा, भारती भवन और स्टेंडिंग क्लब

भारती भवन हमारे स्कूल से घर वापसी के रास्ते में आता था. यह कभी घर से स्कूल जाने के रास्ते पर नहीं मिला मुझे. हम तब बहुत छोटे रहे होंगे. मैं पब्लिक स्कूल, लालबाग में पढ़ा करता था और पिताजी सी एम कॉलेज में पढ़ाया करते थे. भारती भवन, जो किताबों की दुकान हुआ करती थी, पिताजी और उनके दोस्तों के लिये बहस मुबाहिसों की जगह थी, उन दिनों. दरभंगा के टावर चौक पर जिसे बाद में अरविंद मार्केट के नाम से जाना जाने लगा उसी के एक कोने में दिन भर सुस्त सा सोये रहने वाला एक हॉल नुमा दुकान जिसके दो हिस्से कर दिये गये थे. दाखिल होते ही सामने का बड़ा हिस्सा जिसमें किताबें और कुल दो कार्यरत स्टाफों के बैठने की जगहें थी. भीतर मैनेजर का ऑफिस, पॉल साहेब का कमरा जिसमें पिताजी लोगों की बैठकी लगती. लोगों की संख्या के हिसाब से और उनकी बातचीत के डेसीबल लेबल की अनुपात में जगह छोटा था. पर, बहसों और बैचारिकी के लिये यहां पूरा आकाश हुआ करता, ऐसा उन दिनों भी मेरा मन कहता था और यही अब भी उन बहसों के प्रति मेरी अवधारना है. उन्हीं दिनों उनके बैचारिकी का दूसरा अड्डा टॉवर पर ही सड़क की दूसरी तरफ गली के मुहाने पर की चॉय की दुकान भी हुआ करती थी. लाल रंग की लेमन टी, लंबी लीफ पत्तियों बाली. वहां खड़े होकर बातों का दौर चला करता और नाम पड़ा स्टेंडिंग क्लब.बहुत सालों बाद जब हैवरमॉस का पब्लिक स्फियर पढ़ा उसके कॉफी हॉउस और सेलों के बारे में जाना तो लगा कि यह किताब की दुकान और लाल चाय की दुकान का स्टेंडिंग क्लब बौद्धिक सार्वभौमिक ईतिहास का कितना अंग रहे, उससे कितने दूर रहे.
हम भाई बहन यदा कदा स्कूल से लौटते हुए इसी भारती भवन में पिताजी से मिलने पहंुच जाया करते. उन्होने कभी हमसे अचानक आने का अभिष्ट नहीं पुछा, न ही हमने कभी कुछ मांग रखी. हमेशा हमारे आने पर बिना कुछ पुछे कहे शिवशंकर को याद किया जाता और हम उसी अरविंद मार्केट के और भीतर दरभंगा के उन दिनों के सबसे बेहतरीन रेस्टोरेंट में रसगुल्ले या फिर सिंघारा या वहां की मशहूर दही कचौड़ी की लुत्फ उठाने चल पड़ते.
आज Vidyanand Jha ने भारती भवन का जिक्र कर मन को उसा वैचारिक आकाश की तरफ मोड़ दिया, सच में कितनी जरूरत आज है हमे ऐसे स्टैंडिंग क्लबों की.

Tuesday, October 20, 2015

Review: Redmi 2 Prime 16 GB


I purchased a Redmi 2 Prime 16 GB last month. It was smoothly delivered by Snapdeal with a bill dated 19th of September 2015 ( IMEI No 867935020560040). However, soon I realised that the internet function was not working on the phone. It was, however, working on wifi. I thought this must be either a fault with the sim card or service provider's fault. I contacted my service provider for the mobile data and spent long hour at the shop. The technician said this might be due to outdated software installed in the phone and i should contact the RedMi 2 service center for updating software. On 17th October 2015, i went to the local Red Mi service centre at Surat. After a long and arduous wait for about an hour, my  token number blinked on the digital screen and i was at the counter explaining my problem. the mobile was handed over to the tecnician who declared software issue. Receipt was handed back to me with a request to come back and collect the mobile later. My second trip to the service centre was yesterday (19-10-2015) to collect the phone. The scene at the data centre was pathetic (with net down and customers yelling). we were asked to wait. The wait prolonged. Finally with a lot of request the mobile was handed back to us. After reaching home, we found the problem was not solved. No internet in the phone, no browser opening, no google play store. Basically net function was not working. Today, again went back to the service centre. Again spent more than one and half hours ( 10.00 AM to 111.30 AM) and finally they said the phone will have to be deposited for some motherboard issue. Now, i suppose another one month wait. The experience has been horrible.

Monday, October 12, 2015

मिनाक्षी और जे की हरी भरी कला

मिनाक्षी और जे की हरी भरी कला दुनियॉं

मिनाक्षी जे एक कलाकार हैं और जे सुशील
उनके पति पेशे से पत्रकार. इस दम्पति से मेरा परिचय फेसबूक के माध्यम से ही हुआ जब ये दोनो बिहार और झाड़खंड के अंदरूनी ईलाकों में अपनी फटफटिया पर सबार एक अनोखी यात्रा पर थे. इस बात के छह आठ महिने तो हो गये होंगे. ये दोनो प्राणी गॉव, देहात, कस्बा जहां भी जाते किसी के घर रूकते और वहां केस्कूल, पुलिस स्टेशन, संथाल टोले, जैसे गैर व्यक्तिगत जगहों पर किसी दीवाल को चुन कर वहीं के लोगों की मदद से पेंटिग किया करते. फिर, इस अनुठे अनुभव को इसके फोटू को अपने ब्लाग आर्टोलॉग पर और फेसबूक जैसे माध्यम से इंटरनेट पर शेयर करते. इन सुंदर चित्रों को इनके मेजवान भी फेसबूक आदि पर चिपकाते. और रंग बिरंगी दिवारों की दुनियॉं हमारे सामने तैरने लगी. ये उन्हीं दिनों की बात है जब क्या देश और क्या बिदेश, क्या सोशल मीडिया क्या मेन स्ट्रीम मीडिया हर जगह एक दूसरी किस्म का बिहारी दीवाल चक्कर लगा रहा था, लोगों की जुबान पर चढ़ा अस्मिता की राजनीति एवं पिछड़ेपन की छौंक लगा रहा था. वह दीवार बिहार राज्य के किसी स्कूल के परीक्षा भवन की थी जिसपर परिजन जद्दोजहद के साथ लटके हमें शिक्षा प्रणाली के खोखलेपन से रूबरू करा रहे थे. वह दीवार भले ही बिहार के किसी जगह की रही हो पर मीडिया में तैरते ये अक्स शिक्षा प्रणाली की बदहाली, इस बाबत हमारे अविश्वास और इसे सवभर्ट करने की सार्वभौमिक इक्छा के वाहक के रूप में तैर रहे थे. साइकोलॉजी में एक शव्द है प्रोजेक्शन. लोग अपनी दमित इक्छाओं के अक्स के रूप में बाह्य हकीकत को रूपांतरित कर संसार को आंकते है.
खैर, तो उन्हीं दिनों मिनाक्षी और जे की सुंदर तथा अंतर्दृष्टि से भरी दीवारों से मेरा परिचय हुआ था, इसी आभासी दुनिया में.
इनके कला के सौंदर्यबोध की बात मैं यहां नहीं करूंगा पर दो बातें खास तौर पर ध्यान खिंचती है. पहला तो इसका सझिया स्वरूप जो मूलत: और अपनी समग्रता में गैर-व्यक्तिगत है. अंग्रेजी का सहारा लेकर कहें तो पार्टिसीपेटरी एंड पब्लिक आर्ट. ऐसी बात नहीं कि इस कला की अपनी परंपरा नहीं रही है या इसका आकाश नहीं हो. पर, भारत में इसकी बानगी देखने में नहीं मिलती. यहां गैर व्यक्तिगत कला को या तो लोक कला के रूप में हम चर्चा करते हैं या फिर, किसी बड़े सामाजिक संकट बाली घटना के समय किये गये राजनीति प्रेरित कला की अभिव्यक्ति के तौर पर. यदि हम अपनी दृष्टि को थोड़ा विस्तार देने की जहमत उठायें तो सड़क पर दिखाई देती साईनबोर्ड, सिनेमा के पोस्टर, विग्यापन और मजदूरों के बच्चों के हाथों कभी पेंसिल से , कभी सूर्खी से, कभी ईंट से या कभी चॉक से बनायी आड़ी तिरछी रेखाओं में कला का गैर व्यक्तिगत चेहरा देख लेते हैं. पर, मिनाक्षी और जे के प्रयोग इनसे परे जाते हैं. यह लोक कला तो नहीं है पर भागेदारी के स्तर पर सझिया है, लोक तांत्रिक है.  यह सिनेमा का पोस्टर नहीं  पर पब्लिक आर्ट है. राजनीतिक घटना के चौखटे में बंधा हुआ तो नहीं पर हमारी स्थापित मान्यताओं और समझ के साथ सीधे सीधे साक्षातकार करता उसे झंकझोड़ने को मुखातिब जरूर है. इस रूप में स्थापित दावों को तोड़ता नये प्रतिदावों को आकार देती कला.
दूसरी खास बात है इस कला का धरातल. कलाकार दम्पत्ति दिल्ली बासी हैं पर,  अपनी जमात के कलाकारों और पब्लिक आर्ट् के प्रेक्टिसनर्स से भिन्न इनके कला का संदर्भ और जमीन महानगरीय समाज और उसकी अभिजात्यता में सिमटा हुआ नहीं है. यहां गॉव देहात, कस्बे और छोटे शहर सब बसते हैं. यहां इन समाजों और  इनकी समकालीनता महज चित्रों में ही नहीं है यहां शब्द और चित्र दोनों हैं. अनुभव और रंग, आप और हम, लकीर और फकीर, आज और कल.सब एक दूसरे से मिले, हर एक अपने वजूद के साथ सांस लेता.
यदि आप दिल्ली या इसके आसपास हैं तो आज कल इस दम्पत्ति के साथ इनके कला यात्रा में भागेदारी कर सकते हैं, लोधी रोड स्थित इंडिया हैबीटेट सेंटर में जहां इनकी अनोखी कला प्रदर्शिनी अक्टूबर भर चलेगी, आपकी शिरकत के लिये. मैंने फेसबूक पर बहुतेरे परिजनो और उनके बच्चों को चहकते देखा है.