आज बहुत दिनों बाद एक बार फिर से अपने ब्लॉग की याद आई, मामूलीराम के ख़यालात.
कुछ मुख्तसर से,कुछ अपने वजूद को ढूंढते फिरते... कुछ यूँ ही आवारगी करते... उनमें से कईयों ने कहा क्यों कहते हो क्यों मुझे अपने से जुदा करते हो? कैसा लगता है जब तुम मुझे तलाशते हो अपने कहने के लिए
फिर जब इतनी जद्दो जहद के बाद मैं तुम्हे मिल जाता हूँ तो क्या तनिक भी नहीं सोचते कलम से श्याही से की-बोर्ड से पन्नो पर, स्क्रीन पर, ब्लॉग पर उकेरते हुए? क्या यह नहीं लगता कि मैं तुम्हारे जेहन से एक बार निकल जाने के बाद फिर तुम्हारा नहीं रह जाऊँगा? फिर से तुम्हे अगली बार उतनी ही या शायद उससे भी अधिक मेहनत करना परे... फिर से मैं नखरे दिखाऊं और यह भी तो हो सकता है की मैं खो जाऊं दुनिया के भीड़ में... यदि भविष्य ऐसा भी हो सकता है तो फिर लिख डालने का या आत्म विश्वास कैसा? कहीं तुम यह तो नहीं सोचते की शब्द की नियति लिखे जाने से ही है? इस भुलावे में मत रहना...
सन्यासी शब्द कब आओगे मेरी दुनिया में,
खड़े रहोगे वहीँ कच्चे रास्ते पर, शहर से दूर
या फिर
बस्ती में भरे बाजार इतराते फिरोगे...
कुछ मुख्तसर से,कुछ अपने वजूद को ढूंढते फिरते... कुछ यूँ ही आवारगी करते... उनमें से कईयों ने कहा क्यों कहते हो क्यों मुझे अपने से जुदा करते हो? कैसा लगता है जब तुम मुझे तलाशते हो अपने कहने के लिए
फिर जब इतनी जद्दो जहद के बाद मैं तुम्हे मिल जाता हूँ तो क्या तनिक भी नहीं सोचते कलम से श्याही से की-बोर्ड से पन्नो पर, स्क्रीन पर, ब्लॉग पर उकेरते हुए? क्या यह नहीं लगता कि मैं तुम्हारे जेहन से एक बार निकल जाने के बाद फिर तुम्हारा नहीं रह जाऊँगा? फिर से तुम्हे अगली बार उतनी ही या शायद उससे भी अधिक मेहनत करना परे... फिर से मैं नखरे दिखाऊं और यह भी तो हो सकता है की मैं खो जाऊं दुनिया के भीड़ में... यदि भविष्य ऐसा भी हो सकता है तो फिर लिख डालने का या आत्म विश्वास कैसा? कहीं तुम यह तो नहीं सोचते की शब्द की नियति लिखे जाने से ही है? इस भुलावे में मत रहना...
सन्यासी शब्द कब आओगे मेरी दुनिया में,
खड़े रहोगे वहीँ कच्चे रास्ते पर, शहर से दूर
या फिर
बस्ती में भरे बाजार इतराते फिरोगे...